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सद्यायमाला::
क नहि सातमे, दाक्षिणवंत होए ठमे ॥ ४ ॥ सावंत नर नवसे क ह्यो, करुणाकारि दशमें लह्यो || एकादशमे होए मध्यस्थ, द्वादशमें गुण रागी प्रशस्त ॥ ५ ॥ धर्मकथा वल्लज तेरमे, शुजपरिवार सहित चउदमे ॥ उत्तर कालें निज हितकार, करे काज पन्नरमे विचार ॥ ६ ॥ षोडशमे गुण दोष विशेष, जाणे निज पर समवडलेख ॥ सदाचार ज्ञानादिक वृद्ध, सत्त रमे सेवे ते सिद्ध ॥ ७ ॥ अडदशमे गुणवंत महंत, तेनो विनय करे मं न खंत ॥ न वीसारे कीधो उपगार, श्रावकगुण जंगणी शमो सार ॥ ८ ॥ | गीतार्थ साधे पर, वीशमा गुणनो धारो छ | धर्मकार्य करवे होए दक्ष, एक विशमो गुण ए प्रत्यक्ष ॥ ए ॥ ए मांहेला जंगणीश विरंहिति, श्रावक धर्मनी नहिं प्रतिपत्ति ॥ चोथा चउदशमा गुण विना, अंगी करयो पण हारे जना ||१०|| ते माटे गुण अंगें धरो, जिम श्रावकपणुं सूधुं वरो ॥ पंक्ति शांति विजयनो शिष्य, मानविजय कहे धरी जगी ॥ ११ ॥ इति ॥
॥ अथ नोकरवालीनी सचाय ॥
॥ ढाल ॥ एक नारी रे, धर्म तो धुरि जाणियें । तस महिमा रे, मन रंगें वखापियें | तेह नारी रे, आपणडे मन थापियें ॥ षटदर्शनी रे, ते पण सघले मानीयें ॥ १ ॥ त्रूटक | मानिये पण नारी रूडी, नहिं कूड ते वली ॥ करकमल कीजें काज सीके, ध्यान धरियें मन रुली ॥ त्रिभुवन सोहे रूप मोहे, देव दानव कर चडी ॥ नोकरवाली मुहपत्तीने, आदिपुरुष च्यादरी ॥ २ ॥ ढाल || जिनशासन रे, नोकरवाली सहु कहे ॥ परशासनी रे, जपमाली कहि सवि गणे ॥ तुरकाणे रे, तसबी बोले म न रुली ॥ माला रे नाम कहियें, चोथुं वली ॥ ३ ॥ त्रूटक ॥ तस 'नाम लीजे काम सीजें, लोक बुजे अति घणा ॥ दरसण दीठे दुःख नीवे, पाप जाये जव तणां ॥ हरि हर पुरंदर सकल मुनिवर, दाथे रूडी दीस ए॥ नोकरखाली हाथ लेतां देव दानव तूस ए ॥ ४ ॥ ढाल ॥ एक शोहे रे, मूरति मोहनवेलडी ॥ शोहामणी रे, चतुरपणे ते गुणें चडी ॥ दोय चोपन रे, मली करी अष्टोत्तरी ॥ ध्यान धरियें रे, तरियें जवसायर वली ॥ ५ ॥ त्रूटक || संसार तरियें ध्यान धरियें, तरियें जवसायर वली ॥ नोक वाली ध्यान धरतां मुक्ति पामे केवली ॥ सवि यश पूरी कर्म चूरी, सहे