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श्रावकना एकवीश गुणनी सद्याय,
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दंमदंत मुनीश्वर, वनमा रह्यो काउसग्ग जी॥ कौरवं कटक हएयो ईटा || ले, त्रोड्या कर्मना वर्ग जी ॥आ ॥२४॥ सज्यापालक काने तरुर्ड, नाम्यो क्रोध उदीर जी ॥ विहुँ कानें खीला गेकाणा, नवि बूटा महावीर जी॥ आ०॥ २५॥ चार हत्यानो कारक हुँतो,, दृढप्रहार अतिरेक जी॥ क्षमा करीने मुक्त पहोतो, उपसर्ग सह्या अनेक जी ॥आण ।। २६ ॥ पो होरमांहे उपजतो हास्यो, क्रोधे केवल नाण जी॥ देखो श्रीदमसार मुनी सर, सूत्र गुण्यो उहाण जी ॥ आ॥॥ सिंह गुफावासी झषि की धो, शूलिन ऊपर कोप जी॥ वेश्या वचन गयो नेपालें, कीधो संजम लोप जी॥आ॥२॥ चंबावतंसक काजसग रहियो, क्षमा तणो नं मार जी ॥ दासी तेल लस्यो निशि दीवो, सुरपदवी लही सार जीआ | ॥शए ॥ म अनेक तस्या त्रिजुवनमें, क्षमागुणे नवि जीव जी॥क्रोध क री कुगतें ते पहोता, पाडंता सुख रीव जी ॥ आ० ॥ ३० ॥ विष हलाहल | कहीयें विरुङ, ते मारे एक वार जी ॥ पण कषाय अनंती वेला, आपे म: रण अपार जी॥ आणं ॥३१॥ क्रोध करंतां तप जप कीधां, न पड़े कांई। वाम जी॥ आप तपे परने संतापे, क्रोधशु केहो काम जी॥ आ॥२३॥ क्षमा करंतां खरच न लागे, नांगे क्रोड कलेश जी॥ अरिहंत देव आरा धक थाये, व्यापे सुजस प्रदेश जी ॥आ ॥ ३३॥ नगरमांहे नागोर न गीनो, जिहां जिनवर प्रासाद जी॥श्रावक लोक वसे अति सुखिया, धर्म तणे परसाद जी ॥आ ॥ ३४ ॥ क्षमा बत्रीशी खांतें कीधी, आतम पर उपगार जी॥सांजलतां श्रावक पण समज्या, उपशम धस्यो अपार जी॥ ॥आ॥ ३५ ॥ जुगप्रधान जिणचंद सुरीसर, सकलचंद तसु शिष्य जी। समयसुंदर तसु शिष्य नणे श्स, चतुर्विध संघ जगीश जी ॥३६॥ इति ।।
॥अथ श्रावकना एकवीश गुणनी सद्याय ॥ ॥ चोपाई ।। सशुरु कहे निसुणो नवि लोक, धर्म विना लव होये फो क॥ गुण विण धर्म किळ पण तथा, श्रांक विना मीडां होय यथा ॥१॥ धर्मरयणने तेहज योग, जेहने अंगे गुण आलोग ॥ श्रावकना गुण ते ए कवीश, सूत्रं सांख्या श्रीजगदीश ॥२॥ पहेंले गुणे बल बलियो न होय, वीजे इंजियपटुता जोय॥त्रीजे सौम्यस्वनावी जाण, चोथे लोकप्रिय शुन वाण ॥ ३॥ चित्त संक्लेश तजे पांचमे, ब अपजसथी वीरमे॥परने वंच
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