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(२०)
• सद्यायमाला..
॥ ढ़ाल तेरमी ॥
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॥ राग धनाश्री ॥ तुमें जावो रे, जवि इंगी परें जावना जावो ॥ तन मन वयण धर्म लय लावो, जिम सुख संपद पावो रे ॥ ज० ॥ १ ॥ ललना लोचन चित न मोलावो; धन कारण कांइ धावो ॥ प्रभुशुं तारो तार मि लावो, जो होय शिवपुर जावो रे ॥ कांइ गर्जावास न श्रावो रे ॥ ज० ॥ २ ॥ जबूनी पेरें जीव जगावो, विषय थकी विरमावो ॥ ए हित शीख अमारी मानी, जग जस पडह वजावो. रे ॥ ज० ॥ ३ ॥ श्री जशसोम विबुध वैरागी, जग जस चिह्न खं चावो ॥ तास शिष्य कहे जावन जण तां, घर घर होये बधावो रे ॥ ज० ॥ ४ ॥ दोहा ॥ जोजन नज गुण वरस शुचि, सित तेरस कुजवार ॥ जगति हेतु जावन जणी, जेसलमेर मकार ॥ जगा॥ इति श्री जशसोम शिष्यजयसोम कृत द्वादश भावना संपूर्णा ॥ ॥ अथ सीताजीनी सद्याय प्रारंभ ॥
॥ जनकसुता हुं नाम धरावुं, राम बे अंतरजामी ॥ पालव मारो मे लने पापी, कुलने लागे बे खामी ॥ घडशो मांजो, मांजो मांजो मांजो ॥ ० ॥ माहारो नाहली हवाय ॥ ० ॥ मने संग केनो न सुहाय ॥ ० ॥ महारुं मन मांहेथी अकुलाय ॥ ० ॥ १ ॥ ए कणी ॥ मेरु महीधर नाम तजे जो, पञ्चर पंकज ऊगे ॥ जो जलधि मर्यादा मूके, पांग लो र पूगे ॥ ० ॥ २ ॥ तो पण तुं सांजलने, रावण, निश्चय शील न खंकुं ॥ प्राण अमारो परलोक जाये, तो पण सत्य न ढंकुं ॥ ० ॥ ३ ॥ कु मणिधरना मणि लेवाने, हैयडे घाले हाम ॥ सती संघातें स्नेह करी ने, कहो कु साधे काम ॥ ॥ परदारानो संग करीने, आखो कोण उ गरियो ॥ जंकुं तो तुं जोए आलोची, सही तुज दाहाडो फरियो ॥ ०॥ ॥ ५ ॥ जनकसुता हुं जग सहु जाणे, जामंगल बे जाइ ॥ दशरथ नंदन शिर बे स्वामी, लखमण करशे लड़ाइ ॥ ० ॥ ६ ॥ तुं धणीयाती पीउ गुणराती, हाथ बे महारे बाती ॥ रहे अलगो तुज क्यों न चलूं, कां कुलें वा बे काती ॥०॥ ॥ उदयरतन कहे धन्य ए अबला, सीता जेहनुं ना म ॥ सतियांमांहे शिरोमणि कहीयें, नित्य नित्य होजो प्रणाम ॥० ॥ ॥ ॥ अथ नोकारवालीनी सद्याय ॥
॥ बार जपुं अरिहंतना, जगवंतना रे गुण हुं निशदीस ॥ सिद्ध आठ गुण