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श्री अर्जुनमालीनी सद्याय.
(.३१५) नखे ॥ ए देशी ॥ सद्गुरु चरणे नमि कहुं सार, अर्जुनमाली मुनि अधिकार ॥ नवि सांसो । रूडी राजगृही पुरि जाण, राज्य करे श्रेणि क महिरा ॥ जवि ॥ १ ॥ नगर निकट एक वाडी अनूप, सकल तरु जिहां सोहे सरूप ॥ ज० ॥ दीपे मोघरयक्ष तिहां देवं, अर्जुनमाली करे तसु सेव ॥ जवि० ॥ २ ॥ बंधुमती गृहिणी तसु जाण, रूप यौवने करी रंजसमान ॥ ज० ॥ एकदा अर्जुन ने त्रिया देवगेह, गया वाडीयें विहुं धरि नेह ॥ ज० ॥ ३ ॥ गोविल षट् नर आव्या तिवार, विकल या देखि बंधुमती नार ॥ ज० ॥ अर्जुनने वांधी एकांत, जोगवी बंधु मती मननी हो खांत ॥ ज० ॥ ४ ॥ अर्जुन चिंते मोघरपाणि आज, सेवकनी तुं करजे साह्य ॥ ज० ॥ एम निसुली यह पेठो हो अंग, वंधन त्रोडी चाल्यो मन रंग ॥ ज० ॥ ५ ॥ गोविल षट् नर सातम। नार, मोघरशुं मारीने चाल्यो तिवार ॥ ज० ॥ दिन दिन पटू नर ने एक नार, हण्या व मास लगें एक हजार ॥ ज० ॥ ६ ॥ वशें साठ वली ऊपर जाए, हया ते माणस मोघरपाए ॥ ज० ॥ विस्तरी नयरी मांहे ते वात, लोक विनां ते वाहार न जात ॥ ज० ॥ ७ ॥ इष अवसर राजगृही उद्यान, | समोसख्या माहावीर सुजाण ॥ ज० ॥ शेठ सुदर्शन सुपि ततकाल, वंद ननें चाल्यो सुकुमाल || नवि ॥ ८ ॥ देखि दोड्यो यक्ष हणवाने काज, | शेठे प्रतिज्ञा करी पंथमांज || न० ॥ उपसर्गथी जो जगरुं एणि वार, पा लुं तो जावजीव चडविहार ॥ ज० ॥ ए ॥ करी नमोवुणं धरे हवे ध्यान, उपाड्यो दवा मोघर पाए || जय || धर्मप्रजावें हाथ थं जिया आकाश, गयो अर्जुनदेही यक्ष नाशि ॥ ज० ॥ १० ॥ धरती उपर पड्यो अर्जुन देह, चित्त वल्युं घटि एकने वेद ॥ ज० ॥ शेठ प्रतिज्ञा अर्जुन पेखि, किहां जाशो पूढे सुविशेष ॥ ज० ॥ ११ ॥ चांदवा जाशु श्रीमहावीर, सांजली साधे ते घयो सधीर ॥ ज० ॥ वाणी सुणी उपन्यो वैराग, लीधुं चारित्र अर्जुन धरि राग ॥ ज० ॥ १२ ॥ कीधुं रे कर्म खपावाने काज, राजगृदी पासें रहेवुं कपिराज ॥ ० ॥ यक्षरूपें हणीया जे जीव, तेनुं वैर लावी मारे सदैव ॥ ज० ॥ १३ ॥ थवाट पाटू मूवी पेजार, गुरंज जोड़ा ने पर प्रहार ॥ ज० ॥ कापट ईंट कोरडा नहिं पार, हणे लाठी के नर हजार ॥ ज० ॥ १४ ॥ शुनपरिणामें साधु सहे सदैव,