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सद्यायमाला..
हो ॥ वि० ॥ लाज नंतो जिन जणे, जु महिमा जाव चंन हो ॥वि० ॥ ज० ॥ ४ ॥ जिरे जिन स्तवना गुण गावतां, एतो समकित होये उद्योत हो ॥ वि० ॥ लंकापति रावणपरें, एतो बांधी तीर्थंकर गोत हो । वि० ॥ ज० ॥ ५ ॥ जिरे अरिहंत नक्ति प्रजावथी, एतो जाये जवनां पाप हो ॥ वि० ॥ जिरे नव निधान सुख संपजे, वली दोवे युं अधिक प्रताप हो ॥ वि० ॥ ज० ॥ ६ ॥ जिरे नवपद ध्यान सदा घरी, एतो पालीयें नवविव शील हो ॥ वि० ॥ नव नोकषायने परहरी, एतो लदीयें सुखनी लील हो ॥ वि० ॥ ज० ॥ ७ ॥ जिरे नवतत्त्वने उलखी, एतो पामी मनुष्य वतार हो । वि० ॥ शत्रु मित्र सरिखा गणो, एतो सकल जंतु निर्धार हो ॥ वि० ॥ ज० ॥ ८ ॥ जिरे उपकार ते कीजीयें, एतो टालियें परनी पीड दो ॥ वि० ॥ नवमीयें नवपुण्य अनुसरी, एतो जांगी ये जवनी भी ड हो ॥ वि० ॥ ज० ॥ ॥ जिरे इविध नवमी प्रमोद, एतो यादरे प्राणी जेह हो ॥ वि० ॥ लब्धिविजय रंगें करी, एतो शिवसुख लेदशे तेह हो ॥ वि० ॥ ज० ॥ १० ॥ इति ॥
॥ अथ दशमीनी सचाय प्रारंभः ॥
॥ राम जो हरि उठीयें ॥ ए देशी ॥ दशमीयें डुषमन वारियें, काम क्रोध मद जोर रे || दशविध यति धर्म याचरी, कापीयें दुःखतणी. दोर रे || लाल सुरंगा रे आतमा ॥ वहियें धर्मनी होर रे, प्रगटे पुण्यनो तोर रे, लहियें मुक्किनुं बोर रे, बाधे जस चिहुं र रे || ला ॥ १ ॥ दशविध विनयनेयसी, तोडीयें मोहजंजाल रे ॥ दशविध मिथ्यात्व परहरी, बंदियें आलपंपाल रे || खा॥ मेलीयें सुकृतमाल रे, प्रगटे नाग्य विशाल रे, होवे मंगलमाल रे, लहियें सुख ततकाल रे | ला ॥ २ ॥ त्रस यावर सर्व जीवने, संज्ञा कही तस रंग रे ।। ते संज्ञा प्रत्ये उलखी, कीजें गुरुनो प्रसंग रे ॥ बा० ॥ संज्ञा धर्म न चंग रे, राखीयें चित्त गरे, सुखत टिनी बहे अंग रे, उलटे ज्युं गंगरंग रे ॥ सा० ॥ ३ ॥ दशविध प्राण सजीवने, जांखे, जिनवर वीर रे ॥ ते दश प्राण तुं प्रामीनें, धरियें मन दया धीर रे ||ला || दशविध सुख शरीर रे, हरियें दशविध पीर रे, तोडीयें दुःखजंजीर रे, पामीयें नवोदधि तीर रे ॥ बा० ॥ ४ ॥ द्रश पंच काण सिद्धांतमें, पाल्यां बे सहि बोल रे ॥ तेहमां नित्य एक नावशुं, करे