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उत्तराध्ययननी सद्याय.
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त्रिंशत्तम तपोमार्गाध्ययन सद्याय प्रारंजः ॥
॥ नारी रे निरुपम नागिला ॥ ए देश || श्री वीरें तप वर्णव्यो, महोटो गुण जग एह ॥ पापकर्म टाली करी, मुक्ति पमाडे जेह ||श्री० ॥१॥ जिम सरोवर कादव जस्यो, शोधे नायक तास ॥ गरनालां बूरी करी, सूर किर नी रे वास ॥ श्री० ॥ ३ ॥ ते मल जेम रवि शोषधे, जेम रुंध्यां गरनाल ॥ श्रवें रूध्यां तप तथा, शोधि करे ततकाल ॥ श्री० ॥ ३ ॥ उपवासो ऊणोदरी, वृत्ति तो रे संखेव ॥ रसवारण संलीनता, कायकलेश धरेव ॥ श्री० ॥ ४ ॥ वेयावच्च आलोयणा, विनयं ने सजाय ॥ काजस्तग्ग का णं तथा, षड् डुग वारंह थाय ॥ श्री० ॥ ५ ॥ बारे भेदें तप करो, अंगी धरो रे समाधि ॥ अध्ययने जिम त्रीशमे, बोले अर्थ अगाध ॥ श्री० ॥६॥ विजयदेव गुरु पाटवी, विजयसिंह मुनिसिंह || हृदय विजय कहे गणध रा, ए दोय गुरु गुणलीह ॥ श्री० ॥ ७ ॥ इति ॥
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॥ अथैकत्रिंशत्तम चरण विध्यध्ययन सद्याय प्रारंभः ॥ ॥ वलिहारी यादवा ॥ देश ॥ वर्द्धमान जिन उपदिसे, धरिये संय | म शुद्धि के | एक दिन चारित्तर दिये, किंचित्मानकी सिद्धि के ॥ १ ॥ सू धी किरिया पाली यें ॥ए आंकणी ॥ इंद्रिय निज वश कीजीयें, विकया त जी मोष के । समिति गुति श्राराधियें, परहरीयें पुण दोष के || सू०॥ ॥ दश दें मुनि धर्म जे, ते राधो जाली के प्रतिमा मुनि श्रावक तणी, वहो धरो शुन जाणि के || || ३ || ज्ञाताधर्म ती कथा, साची आणो चित्त के ॥ बाविस परिसह सांसदो, वोलो वाणी सत्य के ॥ सू० ॥ ४ ॥ जे जे थान के इम कह्या, ते पालो सुजगीश के ॥ अध्ययने एकत्री शमे, बोले श्रीजग दीश के ॥ सू० ॥ ५ ॥ विजयदेव गुरु पाटवी, विजयसिंह गुरु हीर के ॥ शिष्यउदय कहे दोइए, जाणो गोयम वीर के ॥ सू० ॥ ६ ॥ इति ॥ ॥ अथ द्वात्रिंश प्रमादाम अध्ययन सद्याय प्रारंभः ॥
॥ का मिनी मूके न मोरो हाथ ॥ ए देशी ॥ वीर कहे मंत्री शमे रे, अध्य सुविचार || पापहेतु ते परिहरो रे, जिम लहो जवजल पार ॥१॥ जवि नाव धरो गुणराशि, जिम न पडो दुःख पाश ॥ ज०॥ कणी ॥ ना धरो रे, मोह परहरो रे, जीतो राग ने रोष ॥ पंचइंद्रिय वंश करो रे, मंधरो विषय सदोष ॥ ज० ॥२॥ तृणचारी वसतो वनें रे, हरिण जुर्ज वेधाय ॥
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