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उत्तराध्ययननी सद्याय.
(१३५)
नगरी, राजा श्रेणिक दीपे रे || चतुरंग सेनायें परवरियो, तेजें दिएयर | जीपे रे ॥१॥ धन धन श्रीकपिराज अनाथी ॥ श्रकणी ॥ रूपें देवकुमार रे। संवेग रंग तरंगें जीले, यौवनत्रय अणगार रे ॥ध॥ २ ॥ एक दिन कानन पहोतो श्रेणिक, वंद्या श्रीषिराय रे ॥ लघुवय देखी ह्ररखें पूबे, प्रभु तुम्ह कोमल काय रे ॥ ध० ॥ ३ ॥ श्र तुम्ह रूप नो यौवन, तरुणीजन आधार रे || इति अवसर नारीरस लीजें, वडपण संयमजार रे' ॥ ध० ॥ ४ ॥ ध्यान पूरि तब मुनिवर बोले, राजन हुं हुं नाथ रे || नाथ विना संयम में लीधुं नृप कहे हुं तुम्ह नाथ रे ॥ ध० ॥ ५ ॥ जोईयें ते तुम्हनें हुं पूरुं, ल्यो तुम्हें ए बहु आथ रे ॥ मुनि कहे राजन् नाथ न ता हरे, किम थाइश मुऊ नाथ रे ॥ ध० ॥ ६ ॥ राय कहे हय गय रथ पाय क, मणि माणक जंकार रे ॥ माइरे वे हुं नाथ सहूनो, तव वोले अणगार रे ॥ ध० ॥ ७ ॥ कोसंवी नयरीनो राजा, मऊ पिता गुणवंत रे ॥ तास कुं
रहुं तिघं बल्लन, लहु वय लीलावंत रे ॥ ० ॥ ८ ॥ एक दिन मुक अंगें थई वेदना, नटले कोइ उपायें रे ॥ मात पिता माहरे डुःखें दुःखियां, नारी हैयडुं नराय रे ॥ ध० ॥ ए ॥ बहुल विलाप करवाते यें, सुज दुःख नवि लेवाय रे ॥ तव में निर्णय एहवो कीधो, धर्मज एक सहाय रे ॥ ॥ १० ॥ इम चिंतवतां वेदन नाठी, प्रात संयम में लीधो रे || नाथ अनाथ तणो ए विहरो, सुणी नरनाथ प्रसिद्धो रे ॥ ध० ॥ ११ ॥ ते सुणी राजा समकित पाम्यो, मुक्ति गयो अणगार रे ॥ वीशमे अध्य यने जिनवीरें, ए जांख्यो अधिकार रे ॥ ६० ॥ १२ ॥ श्री विजयदेव सूरी श्वर पाटें, विजयसिंह मुनिराय रे ॥ उदय विजय वाचक तस वालक, साधु ता गुण गाय रे ॥ धण् ॥ १३ ॥ इति ॥
॥ श्रथैकविंश समुद्रपाल अध्ययन सचाय प्रारंभः ॥
॥ पूज्य पधारो पाटी यें ॥ ए देशी ॥ नयरी चंपामां वसे, एतो श्रावक पालक नाम ॥ सजनी ॥ एकदिन प्रवण पूरियां, पोहोतो पिटुडपुर ठाम सजनी ॥१॥ समुद्रपाल मुनिवर जयो । ए यांकणी ॥ ए तो संवेगी विख्या त ॥ सजनी ॥ अध्ययनें एकवीरामे, एह सयल अवदात ॥ स०॥० ॥ ॥ ते तिहां धन जेलुं करी, परण्यो विदेशें नारी ॥ स० ॥ सगर्जा नारी लेइ चढ्यो, नियपुर श्रावण हार ॥ स० ॥ स० ॥ ३ ॥ समुद्रमां हि सुत जन
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