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मणिकृत वैराग्यकारक सघायो.
( ११७ )
वत हृद्यथी न बांके ॥ ज्ञान दरिसन चारित्र श्राराधे, सेवकने सुख संपति वाधे || चे ॥ ८ ॥ इति ॥
॥ अथ त्रयोदश साय प्रारंभः ॥
॥ राग भैरव || विमास्युं करे कां मूढा, लोभ लागे वंबा ठेवे मूंगा ॥ माया करे तुक सबु कहे कूडा, माने विजय तुज नावे रूडा ॥ ०॥ १ ॥ क्रोधें करीने तपो का भाई, अचकारि परहाथे विकाइ || हास्य रति जय शोक निवारो, देवदुगंवा तुझें चितमांथी मारो ॥२॥ मिथ्यामति तुम बहुत कमाई, ए महामोह सबहिं दुःखदायी ॥ चारचक्कं करी चनगति पाय, न्यायेंर ति म देव गति थाय ॥ ० ॥ ३॥ मोह |मत्त अणुबंध खपात्रे, यथास्थिति नावें समदृष्टि घ्यावे ॥ ते ज्ञानी जगमें सुख पावे, जवतणां दुःख सर्व गमावे |||||||प्रत्यख्यान चकडी जव यावे, तव सर्वसंयम चित्तें आवे || संजल चक्कनो कषाय जव जावे, तव वीतराग संयम ते कहावे ॥ ० ॥ ॥ ५ ॥ खीण वीतराग नर होय जे कोई, दुःख दोहग तस नाराज होइ ॥ नासा चरणविघन खपाने, केवलनाण दंसण तव पावे ॥ ० ॥ ६ ॥ तथा व्यत्व सामग्री आवे, शुद्धस्वरुप उपररुचि कहावे ॥ उपाय करी कर्म खपावो रे भाई, जो मणिचंद पामो ठकुराई ॥ श्र० ॥ ७ ॥ इति ॥ ॥ अथ चतुर्दश सद्याय प्रारंभः ॥
॥ राग आशावरी ॥ चेतन जब तुमहिं पें न्यारा ॥ परवस्तु उपर क्या धरे प्यारा ॥ जिणें करी वंधण होइ जाइ, हारी मूकी आपणी ठकुराइ ॥ चे॥ १॥ साया करि पाशमां तुम पाड्या, मुखे मीठाई देई नमाज्या ॥ बांगी निद्रा जब मोह केरी, तव जाणे सोये दुर्गति फेरी ॥ चे ॥ २ ॥ आगम पढी आगमी नाम कीना, मानें चढी उपदेश बहु दीना ॥ खयोप राम विणु क्रिया बहु किन्ही, ताको फल सुरपदवी लीनी ॥ चे० ॥ ३ ॥ जवतां प्रमाददशा नवि जाये, तव तां तुम संसार जमावे || मोह पिशा चतुह्म दुःख देखावे, अप्रमत्त जवके सूड हाथे यावे ॥ ० ॥ ४ ॥ उद यागत वस्तु यथास्थिति जावो, बंध नीकाचनो नहिं कोई दावो ॥ ज मणिचंद इम कर्म खपाई, जिम पामो आपणी ठकुराई । वेणा ॥ इति॥
॥ अथ पंचदश सचाय प्रारंभः ॥
॥ दोहा ॥ जो चेते तो चेतजे, जो बूके तो बूक ॥ खानारा सहु खाइ