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:(१४)
। संद्यायमाला:....
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॥ अथ पंमित श्री देवचंजीकृत समकितनी सद्याय॥ ॥ समकित नवि लद्यु रे, ए तो रुट्यो चतुर्गति माहे॥ त्रस थावरकी करुणा कीनी, जीव न एक विराध्यो | तीन, काल सामायिक करतां, ॥ शुद्ध उपयोग न साध्यो ॥ समकित ॥१॥ जूठ बोलवाको व्रत लीनो, चोरीको पण त्यागी॥ व्यवहारादिक महानिपुण जयो, पण अंतर्दृष्टि न जागी॥ स ॥॥ ऊर्ध्वजुजा करि उधो लटके, जस्म लगा धूम गटके ॥जटा जूट शिर झूमे जूगे, विण श्रद्धा नव नटके ॥ सम्॥३॥ निज परनारी त्यागज करके, ब्रह्मचारी बत लीनो ॥ स्वर्गादिक याको फल पामी, निजकारज नवि सीध्यो । स॥४॥ बाह्य क्रिया सब त्याग प रिग्रह, अव्य लिंग पर लीनो ॥देवचंड कहे आविध तो हम, बहूत वार कर लीनो ॥ स ॥५॥इति ॥
॥अथ श्री आत्मोपदेश सद्याय ॥ .|| सासरीये एम जय रे बाइ, सासरी एम जयें ॥ जिनधर्म ते सासरूं कहीं, जिनवर देव तेससरोजिनाणा सासू रढीयाली, तेना कह्यामां विचरो रे बा ॥ सासरीये॥१॥ अरां ने परां क्यांहि न ज मीयें, नमतां जस नवि लहीये रे बा ॥ सा ॥ ए आंकणी ॥ शियल स्वनाव सोहे घाघरीयो, जीवदया कांचलडी ॥ समकित उढणी उढ़ी रे जीणी, शंकामले न खरडी रे बाइ ॥ सा ॥ ॥ निश्चय ने व्यवहार तणा बे, पाये नेउर खलके । बेजविध धर्म साधु श्रावकनो, कानें अको टा ऊलके रे बाइ ।। सा॥३॥ तपतणा बे बेरखा बांहे, तगतगे तेजे सारा ॥ ज्ञान परमत तणुं ते अर्चा, मांहे परिणामनीधारा रे बा| साफ ॥४॥राग सिंपूरनुं कीधुं टीवृं, शियलनो चामलो शोहे ॥नावनो हार हैयामां खहेके, दाननां कांकण सोहे रे बा ॥ सा ॥ ५॥ सुमति सा | हेली साथे लेग्नें, दीवे मारग वहीयें ॥ क्रोध कषाय कुमति अज्ञानी,॥ तेहथी वात न करीये रे बा॥ सा ॥६॥ मिथ्यात्वी पीयरमां न वसी; यें, रहेतां अलखामणां पश्यें ॥ मोह माया मावतर वीरुयां, दोहिलो. काल निगमीय रे बा॥ सा ॥७॥ अनुजवप्रीतम साथे रमतां, प्रेमे
आनंदपद लहियें। विनयप्रन सूरी प्रसादें, जावें शिवसुख लहीये. रे बाइ॥ सा॥॥श्त्यात्मोपदेश सद्याय संपूर्णः II. . . . . . . .
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