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जाविभावनी सद्याय,
(१५१)
मदनां वाम ॥ ज० ॥ श्रष्ट प्रातिहार्य मन घरी, जपिये जिननुं नाम ॥ ज० ॥ ० ॥ ३ ॥ एवं तप तुमें आदरो, धरो मनमां जिनधर्म ॥ ज० ॥ तो तुमें बुटशो आपदा, टालशो चिहुं गति मर्म ॥ ज० ॥ ० ॥ ४ || ज्ञान याराधन एहयकी, लदियें शिवसुख सार ॥ ज० ॥ आवाग मन जन नवि हूर्ज, ए बे जग आधार ॥ ज० ॥ ० ॥ ५ ॥ तीर्थंकर पदवी लढ़े, तपथी नवे निधान || || जू मी कुमरी परें, पामे ते बहु गुण ज्ञाम ॥ ज० ॥ ० ॥ ६ ॥ ए तपना डे गुण घणा, जांखे श्री जिनश्श ॥ ज० ॥ श्री विजयरत्नसूरींदनो, वाचकदेव सूरीश ॥ ज० ॥ श्र० ॥ ३ ॥ ॥ अथ जाविजावनी सचाय ॥ राग बंगाली ॥
॥ कर्मे लखीयुं निश्चय रे दोय, नहिं होय जोर जावीशुं कोय ॥ जाविनां मिटे ॥ उद्यम है सा जाविके दाथ, जाविकुं नदी किसी को साथ ॥ जावि० ॥ १ ॥ जावि तुं है आपही राजान, उद्यम है राजाको दीवान || जावि० ॥ सादेवको तब हुए रे मिलाप, पहलां प्रधानने मलिये आप || मावि ॥ २ ॥ धर्म कर्म र सब हुवे काम, निश्चय पूरे मनकी हाम || जावि० ॥ दोणदार जे हुवे अधिकार ॥ मति उपजे तैसी ते िवार ॥ जावि० ॥ ३ ॥ कर्मे राम लक्ष्मण वनवास ॥ सीता वचनें मति गइ नास ॥ जावि० ॥ न सुण्यो कनक वेद पुराण, धाया मारण जावि प्रमाण || जावि० ॥ ४ ॥ त्रिकूट वेट लंकानुं रे राय, रावणना सुर सेवे पाय || जावि० ॥ योगी वेश करी परि सीत, युद्ध करतां न इ जीत || जावि ॥ ५ ॥ कृष्णपुत्र सांवादि कुमार, द्वैपायन ऋषि डुव्यो अपार || जावि० ॥ द्वारिकानो तेणे की धो रे लोप, नावीथी. न गयो तस कोप | जावि० ॥ ६ ॥ आठमो बारमो वलि चक्रीश, दणिया ब्राह्मणीरी ॥ जावि० ॥ ब्रह्मदत्तनी गइ दोय आंख, समस्तमा गयो सूत्र दे साख ॥ जावि० ॥ ७ ॥ कुंव घरे वधुं नीर दरिचंद, राज पाल्युं नावि नवनंद ॥ जावि० || वीरतणो हुर्ज गर्नापहार, ते सविना वीनो अधिकार || नाविण् ॥ ८ ॥ जरतेश्वरनी खटखं आण, आरसी लहीनें लघुं केवलनाए | जावि० ॥ तप जप कीधो नही रे लगार, जावि थकी लह्यो संसार || जावि० ॥ ए ॥ स्त्री वचनें करि आर्द्रकुमार, दीक्षा तजी रह्यो घरवार ॥ जावि० ॥ वरस चोवीश लगें पाल्यो रे नेह, चरम
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