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________________ - - श्रीयशशिष्यकृत सुगुरुनी सद्याय. (१४७) . ॥ ढाल बीजी ॥ चोपाश्नी देशी ॥. ॥ ॥ उत्तराध्ययने कह्यो ते तणो, मारग ते हवे नवियण सुणो ॥ हिंसा अलिय अदत अबंन, गंमे वली परिग्रह आरंन ॥णाधूप पुष्प वासित घरचित्र, मनें नवं परम पवित्र । जिहां रहेता इंजिय सविकार, काम हेतु होवे ते निवार ।। ११॥ स्त्री पशुपंकक वर्जित ताम, प्रासुक वासकरे अनिराम ।। घर न करे न करावे कदा, त्रस थावर वध जिहां डे सदा ॥१५॥ अन्न पान न पचावे पचे, पचतुं देखी नवि मन रूचे ॥धान नीर पृथवी तृणपात, निश्चित जीवतणो जिहां घात ॥ १३ ॥ दीप अगनी दीपावें नही, शस्त्र सरव दारुते सही, कंचन तृणसम वडी मनधरे, क्रय विक्रय कहिये नवि करे।भा खरीदार क्रय करतो रह्यो, विक्रय करतो वली वाणियो। क्रय विक्रयमां वर्ते जेह, जिनुनाव नविपाले,तेह ॥१५॥ क्रय विक्रयमा बहुली हाणि, निदावृत्ति महागुण खाणि ॥ मजाणीआ गम अनुसरी, मुनि समुदाय करे गोचरी ॥१६॥ रसलालची नकरे गुण वंत, रसअर्थे नवि जुजें दंत ॥ संयमजीवित रक्षाहेत, संतोषी मुनि जो जन खेत ॥ १७ ॥ अर्चन रचना परजानती, नविले शुन्नध्यानी यती॥ करी महाव्रत आराधना, केवलज्ञान सहे शुन्नमना ॥ १७॥ ॥ ढाल जीजी॥श्रीसीमंधरजिन त्रिजुवन नाण ॥ ए देशी।। ॥मारग साधुतणो ले जावे, दर्शन ज्ञान चारित्रस्वनावे ॥ चरकादिक आचार कुपंथे, पासबादिकना निजयूथें ॥ १ए॥ आधाकर्मादिक जे से वे, कालहाणी मुख पूषण देवे॥ जिनमारग डोडी जवकामी, थापें कुसत कुमारग गामी ॥णी मारग एक अहिंसा रूप, जेहथी ऊतरीयें नवकूप ॥ सर्वयुक्तिथी एहज जाणो, एहज सार समय मन आणो ॥१॥ जर ध अध तीरा जे प्राणी, त्रस थावर ते न हणे नाणी ॥ एषण दोष त्यजे उद्देशी, कीर्छ अन्न न लीये शुजलेशी आशा आधाकर्मादिक अविशुद्ध, अवयव मिश्रित जे जे अशुझ॥ तेपण पूति दोषथी टाले, ए मारगी संय म अजुश्राले ॥३॥हणताने नवि मुनि अनुमोदे, कूपादिक न वखाणे मोदें, पुण्यपाप तिहां पूजे कोश, मौनधरे.जिन आगम जो॥॥ पुण्य कहेतो पातक पोषे, पापकहे जनवृत्ति विशोषे, केश्नाषे निरदोष आहार, सूफे अमने श्हां अधिकार ॥२५॥ मुगतिकाजें सवि किरीया करतो,पू RAMMARRIA - ani- - - -
SR No.010852
Book TitleSazzayamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1988
Total Pages425
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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