________________
३०
वलीम अनुयोगवर स्कन्दिलाचार्यका नाम आता है, परन्तु उसमें गच्छ भी दावा विपयमे तनिक भी निर्देश नहीं है; जब कि करपलूनकी स्वविवलोम विवा शाखाका निर्देश तो आता है, किन्तु उसमे दिला कहीं नामक नहीं है । पादलिप्तका नाम तो उक्त दोनोमेंसे किसी भी स्वविक्की नहीं याता । जय.. पादलिप्त एव स्कन्दिल दोनो विद्याधर आम्नायमे हुए है, इस बात के लिए प्रभावकचरित्र से अधिक प्राचीन आधार दूसरा कोई नही है । पादलिप्नका समय विक्रमकी पहली दूसरी शताब्दी होगा, ऐसा परम्पराको देवने पर लगता है और वृद्धवादीके गुरु प्रस्तुत स्कन्दिल यदि अनुयोगवरी रूपमें निर्दिष्ट तथा माधुरी वाचनाके सूत्रधारके रूपमे प्रख्यात स्कन्दिल ही हो, तो उनका नमव विक्रमकी चौथी सदी के आसपास समझना चाहिए । अत पादलिप्त एवं दिल के बीच दो सौ वर्ष से कम अन्तर नही होगा ।
( ख ) प्रभावकचरिन वृद्धवादीको स्कन्दिलका शिष्य और प्रत्यचिन्तामणिका टिप्पण उन्हे आर्यसुहस्तीका शिष्य कहता है | इनमेते प्रभावक चरित्रका ही कथन सगत प्रतीत होता है । सम्प्रतिके धर्मगुरु नुहत्ती के जतिरिक्त दूसरे आर्यसुहस्ती जैन साहित्यमे प्रसिद्ध नही है और यह आर्यनुहस्ती विक्रमसे दो सौ वर्ष पहले होने से उनके साथ वृद्धवादीके समयका मेल बैठे ही नही सकता । ऐसा लगता है कि प्रवन्वचिन्तामणिका कयन महाकाल तीर्थ के साथ दिवाकर और सुहस्तीके सम्वन्धको भ्रान्त परम्परोमेंसे शायद उत्पन्न हुआ हो । ( ग ) इस विभाग से सम्बद्ध समयका विचार 'समय' शीर्षक के नीचे प्रारम्भमे ही आ गया है ।
३ दिवाकरका कात्यायन गोत्र, उनके माता-पिता के नाम और बहन के साध्वी होने की वात इन सबके लिए इस समय प्रभावकचरित्रकी अपेक्षा कोई अधिक पुराना आधार हमारे पास नही है |
१. मुनि श्री कल्याणविजयजीका 'नागरी प्रचारिणी पत्रिका' में प्रकाशित लेख, पु० १०, अक ४ ।
२. प्रवन्धचिन्तामणिमें सिद्धसेनका या वृद्धवादीका कोई खास अलग प्रवन्ध नहीं है, परन्तु विक्रमार्क के प्रबन्धमें उसके साथ जितना सम्बन्ध है, उतना ही सिद्धसेनका उल्लेख है । इसीलिए सम्पादकने सिद्धसेन और उनके गुरु वृद्धवादीका क्यानक किसी प्रबन्धान्तरसे लेकर उस प्रबन्धके टिप्पण में रखा है । उस टिप्पण में वृद्धवादीको श्रार्यसुहस्तीका शिष्य कहा है । देखो पृ० १६-२३ ।