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- प्रवचनसारः
३११ एकः खलु स भक्तः अपरिपूर्णोदरो यथालब्धः ।
भैक्षाचरणेन दिवा न रसापेक्षो न मधुमांसः॥ २९ ॥ एककाल एवाहारो युक्ताहारः, तावतैव श्रामण्यपर्यायसहकारिकारणशरीरस्य धारणत्वात् । अनेककालस्तु शरीरानुरागसेव्यमानत्वेन प्रसह्य हिंसायतनीक्रियमाणो न युक्तः । शरीरानुरागसेवकत्वेन च युक्तस्य अप्रतिपूर्णोदर एवाहारो युक्ताहारः तस्यैवाप्रतिहतयोगत्वात् । प्रतिपूर्णोदरस्तु प्रतिहतयोगत्वेन कथंचित् हिंसायतनीभवन् न युक्तः । प्रतिहतयोगत्वेन न च युक्तस्य यथालब्ध एवाहारो युक्ताहारः तस्यैव विशेषशरीरस्थितिसंभवात् । स च कथंभूतः । अप्पडिपुण्णोदरं यथाशक्त्या न्यूनोदरः जहालद्धं यथालब्धो न च खेच्छालब्धः चरणं भिक्खेण भिक्षाचरणेनैव लब्धो न च स्वपाकेन दिवा दिवैव न च रात्री । ण रसावेक्खं रसापेक्षो न भवति किंतु सरसविरसादौ समचित्तः ण मधुमंसं अमधुमांसः अमधुमांस इत्युपलक्षणेन आचारशास्त्रकथितपिण्डशुद्धिक्रमेण समस्तायोग्याहाररहित इति । एतावता किमुक्तं भवति । एवंविशिष्टविशेषणयुक्त एवाहारस्तपोएक काल (वक्त ) ग्रहण किया जाता है, तब योग्य आहार होता है, और वह योग्य आहार [ अपरिपूर्णोदरः] नहीं पूर्ण होता है, पेट जिससे ऐसा होता है, [यथालब्धः ] जैसा कुछ मिले, वैसा ही अंगीकार करने योग्य है, [भैक्षाचरणेन] भिक्षावृत्ति कर लेना योग्य है, [दिवा ] दिनमें ही लेने योग्य है, [न रसापेक्षः] जिस आहारमें मिष्ट स्निग्धादि रसकी इच्छा न हो, तथा [न मधुमांसः ] शहद और मांसादि अयोग्य वस्तुएं जिसमें नहीं हैं ऐसा । भावार्थ-मुनिको एक ही बार आहार करना चाहिये, क्योंकि मुनि-पर्यायका सहायक शरीर है, उस शरीरकी स्थिति एक बार आहार लेनेसे होजाती है, इसलिये एक वक्त लेना योग्य है, और जो शरीरके अनुरागसे बार बार लेवे, तो वह प्रमाद दशासे द्रव्य-भावहिंसाका कारण होता है, इसलिये बार बार लेना अयोग्य है, एक ही काल लेना उचित है, और एक बार भी शरीरके अनुरागसे जो लिया जावे, तो वह भी अयोग्य है, संयमकी सिद्धिका कारण शरीरकी स्थितिके निमित्त जो लेना है, वह योग्य है, और एक बार भी पेट भरके आहार लेना है, वह भी अयोग्य है, क्योंकि बहुत आहारसे योगकी शिथिलता होनेपर प्रमाद-दशा होजाती है, वही हिंसाका कारण है, इसलिये उदर भरके भोजन करना योग्य नहीं है, ऊनोदर रहना ठीक है, और शरीरके अनुरागकर जो पेटभर भी न लिया जाय, तो भी वह योग्य आहार नहीं है, संयमका साधन शरीरकी स्थितिके निमित्त ही ऊनोदर रहना ठीक है। जैसा कुछ मिले, वैसा ही अंगीकार करे, ऐसा नहीं, कि अपने लिये करावे । इसलिये यथालव्ध आहार ठीक है, और यथालब्ध आहार भी