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प्रवचनसारः
छेदो येन न विद्यते ग्रहणविसर्गेषु सेवमानस्य । श्रमणस्तेनेह वर्ततां कालं क्षेत्रं विज्ञाय || २२ ||
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आत्मद्रव्यस्य द्वितीयपुद्गलद्रव्याभावात्सर्व एवोपधिः प्रतिषिद्ध इत्युत्सर्गः । अयं तु मिश्रकालक्षेत्रवशात्कश्चिदप्रतिषिद्ध इत्यपवादः । यदा हि श्रमणः सर्वोपधिप्रतिषेधमास्थाय परममुपेक्षासंयमं प्रतिपत्तुकामोऽपि विशिष्ट कालक्षेत्रवशावसन्नशक्तिर्न प्रतिपत्तुं क्षमते तदापकृष्य संयमं प्रतिपद्यमानस्तद्बहिरङ्गसाधनमात्रमुपधिमातिष्ठते । स तु तथा स्थीयमानो न खलूपधित्वाच्छेदः, प्रत्युत छेदप्रतिषेध एव । यः किलाशुद्धोपयोगाविनाभावी स छेदः । संबोधनार्थं निर्ग्रन्थमोक्षमार्गस्थापनमुख्यत्वेन प्रथमस्थले गाथापञ्चकं गतम् । अथ कालापेक्षया परमोपेक्षासंयमशक्त्यभावे सत्याहारसंयमशौचज्ञानोपकरणादिकं किमपि ग्राह्यमित्यपवादमुपदिशति - छेदो जेण ण विज्जदि छेदो येन न विद्यते । येनोपकरणेन शुद्धोपयोगलक्षणसंयमस्य छेदो विनाशो न विद्यते । कयोः । गहणविसग्गेसु ग्रहणविसर्गयोः यस्योपकरणस्यान्यवस्तुनो वा ग्रहणे स्वीकारे विसर्जने । किं कुर्वतः तपोधनस्य । सेवमाणस्स तदुपकरणं सेवमानस्य समणो तेहि वट्टदु कालं खेतं वियाणित्ता श्रमणस्तेनोपकरणेनेह लोके किसी एक तरहसे कोई एक परिग्रह अत्याज्य भी है, ऐसा अपवादमार्ग दिखलाते हैं - [ सेवमानस्य ] परिग्रह सेवनेवाले मुनिके [ ग्रहण विसर्गेषु ] ग्रहण करने में अथवा त्यागने में [ येन ] जिस परिग्रहसे [ छेदः ] शुद्धोपयोगरूप संयमका घात [ न विद्यते ] नहीं हो, [ तेन ] उस परिग्रहसे [ श्रमणः ] मुनि [ कालं क्षेत्रं ] काल और क्षेत्रको [विज्ञाय ] जानकर [ इह ] इस लोकसें [वर्ततां] प्रवर्ते (रहे ) तो कोई हानि नहीं है । भावार्थ - उत्सर्गमार्ग वह है, कि सब परिग्रहका निषेध किया है, क्योंकि आत्माके एक अपने भावके सिवाय परद्रव्यरूप दूसरा पुद्गलभाव नहीं है, इस कारण उत्सर्गमार्ग परिग्रह रहित है, और यह विशेषरूप अपवादमार्ग है, वह काल क्षेत्रके वश किसी एक परिग्रहको ग्रहण करता है, इसलिये अपवाद भेदरूप है । यही दिखलाते हैं - जिस समय कोई एक मुनि सब परिग्रहको त्यागकर परम वीतराग संयमको प्राप्त होना चाहता है, वही मुनि किसी एक कालकी विशेष - तासे अथवा क्षेत्रके विशेपसे हीन शक्ति होता है, तब वह वीतरागसंयम दशाको नहीं धारण कर सकता, इसलिये सरागसंयम अवस्थाको अंगीकार करता है, और उस अवस्थाका वाह्य साधन परिग्रह ग्रहण करता है । उस परिग्रहको ग्रहण कर तिष्ठते हुए मुनिके उस परिग्रहसे संयमका घात नहीं होता । संयमका घात वहाँ होता है, जहाँ पर कि मुनिपद्का घातक अशुद्धोपयोग होता है । यह परिग्रह तो संयम के घातके दूर करने के 'लिये है । मुनिपदवीका सहकारी कारण शरीर है, और उस शरीरकी प्रवृत्ति आहार नीहारके ग्रहण त्यागसे होती है, उसमें संयमके घातके निपेधके लिये अंगीकार करते
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