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________________ २१२ - रायचन्द्रजैनशास्त्रमाला - [अ० २, गा० ५९... योऽयमात्मनः पौगलिकप्राणानां संतानेन प्रवृत्तिः तस्या अनादिपौगलकर्म मूलं, शरीरादिममत्वरूपमुपरक्तत्वमन्तरङ्गो हेतुः ॥ ५८ ॥ अथ पुद्गलपाणसंततिनिवृत्तिहेतुमन्तरङ्गं ग्राहयति जो इंदियादिविजई भवीय उवओगमप्पगं झादि । कम्मेहिं सो ण रंजदि किह तं पाणा अणुचरंति ॥ ५९॥ य इन्द्रियादिविजयी भूत्वोपयोगमात्मकं ध्यायति । कर्मभिः स न रज्यते कथं तं प्राणा अनुचरन्ति ॥ ५९॥ पुद्गलप्राणसंततिनिवृत्तेरन्तरङ्गो हेतुर्हि पौगलिककर्ममूलस्योपरक्तत्वस्याभावः । स तु । समस्तेन्द्रियादिपरद्रव्यानुविजयिनो भूत्वा समस्तोपाश्रयानुवृत्तिव्यावृत्तस्य स्फटिकमणेरिविषयेष्विति । ततः स्थितमेतत् इन्द्रियादिप्राणोत्पत्तेर्देहादिममत्वमेवान्तरङ्गकारणमिति ॥ ५८ ॥ ... अथेन्द्रियादिप्राणानामभ्यन्तरविनाशकारणमावेदयति-जो इंदियादिविजई भवीय यः कर्तातीन्द्रियात्मोत्थसुखामृतसंतोषबलेन जितेन्द्रियत्वेन निःकषायनिर्मलानुभूतिबलेन कषायजयेन पञ्चेन्द्रियादिविजयीभूत्वा उवओगमप्पगं झादि केवलज्ञानदर्शनोपयोगं निजात्मानं ध्यायति कम्मेहिं सो ण रंजदि कर्मभिश्चिच्चमत्कारादात्मनः प्रतिबन्धकैर्ज्ञानावरणादिकर्मभिः स न रज्यते न बध्यते । किह तं पाणा अणुचरंति कर्मबन्धाभावे सति तं पुरुष प्राणाः कर्तारः कथमनुचरन्ति कथमाश्रयन्ति । न कथमपीति । ततो ज्ञायते कषायेन्द्रियविजय एव पञ्चेन्द्रियादिप्राणानां आदिक विषयों में [ ममतां] ममत्व बुद्धिको [न त्यजति ] नहीं छोड़ देता । भावार्थ-जबतक इस जीवके शरीरादिमें से ममत्ववुद्धि नहीं छूटती, तबतक चतुर्गतिरुप संसारके कारण प्राणोंको धारण करता है। इस कारण प्राणोंका अंतरंग कारण जो ममता भाव है, वह सब तरहसे त्यागने योग्य है ॥ ५८ ॥ आगे इन पुद्गलीक प्राणोंकी संतानके नाशका अंतरंग कारण कहते हैं-[य] जो पुरुष [इन्द्रियादिविजयीभूत्वा ] इंद्रिय कपाय अव्रतादिक विषयोंको जीतनेवाला होकर [ आत्मकं ] अपने [ उपयोगं] समस्त परभावोंसे भिन्न शुद्ध चैतन्यस्वरूपका [ध्यायति] एकाग्र चित्त होकर अनुभव करता है, [सः] वह भेदविज्ञानी [ कर्मभिः ] समस्त शुभाशुभकाँसे [न रज्यते ] रागी नहीं होता, [तं] उस महात्माको [प्राणाः] संसार'संतानके कारण पुद्गलीक प्राण [कथं] किस तरह [अनुचरन्ति संवद्ध कर सकते हैं ? किसी तरहसे भी नहीं । भावार्थ-पुद्गल-संतानके अभावका कारण एक वीतरागभाव है। जैसे स्फटिकमणिकी शुद्धताका कारण उसके सभीप काली पीली हरी आदि वस्तुका अभाव है, उसी तरह यह आत्मा सकल इंद्रिय विकारोंसे रहित होकर निज स्वरूपमें होनेसे शुद्धस्वरूपको प्राप्त होता है, उसके बाद फिर प्राणधारणरूप दूसरा • भई
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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