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१९.]. .. . . -प्रवचनसारः -
१५५ पर्यायास्तदा हेमसमानजीविताभियौंगपद्यप्रवृत्ताभिहेमनिष्पादिकाभिरन्वयशक्तिभिरङ्गदादिपर्यायसमानजीविताः क्रमप्रवृत्ता अङ्गदादिपर्यायनिष्पादिका व्यतिरेकव्यक्तीस्तास्ताः संक्रामतो हेग्नः सद्भावनिबद्ध एव प्रादुर्भावः यदा तु पर्याया एवाभिधीयन्ते न द्रव्यं तदा प्रभवावसानलाञ्छनाभिः क्रमप्रवृत्ताभिः पर्याय निष्पादिकाभिर्व्यतिरेकव्यक्तिभिस्ताभिस्ताभिः प्रभवावसानवर्जिता योगपद्यप्रवृत्ता द्रव्यनिष्पादिका अन्वयशक्तीः संक्रामतो द्रव्यस्यासद्भावनिबद्ध एव प्रादुर्भावः हेमवदेव । तथाहि-यदाङ्गदादिपर्याया एवाभिधीयन्ते न हेम तदाङ्गदादिपर्यायसमानजीविताभिः क्रमप्रवृत्ताभिरङ्गदादिपर्यायनिष्पादिकाभिर्व्यतिरेकव्यक्तिभिस्ताभिस्ताभिर्हेमसमानजीविता' यौगपद्यप्रवृत्ता हेमनिष्पादिका अन्वयशक्तीः संक्रामतो हेमोऽसद्भावनिबद्ध एव प्रादुर्भावः । अथ पर्यायाभिधेयतायामप्यसदुत्पत्तौ प्रादुर्भावमुत्पादम् । कथं भूतम् । सदसम्भावणिबद्धं सद्भावनिबद्धमसद्भावनिबद्धं च । काभ्यां कृत्वा । दवत्थपज्जयत्थेहिं द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनयाभ्यामिति । तथाहि-यथा यदा काले द्रव्यार्थिकनयेन विवक्षा क्रियते यदेव कटकपर्याये सुवर्ण तदेव कङ्कणपर्याये नान्यदिति, तदा काले सद्भावनिबद्ध एवोत्पादः । कस्मादिति चेत् । द्रव्यस्य द्रव्यरूपेणाविनष्ठत्वात् । यदा पुनः . पर्यायविवक्षा क्रियते कटकपर्यायात् सकाशादन्यो यः कङ्कणपर्यायः सुवर्णसम्बन्धी स एव न भवति । तदा पुनरसदुत्पादः कस्मादिति चेत् । पूर्वपर्यायस्य विनष्टत्वात् । भावनिबद्धं ] सत् और असत् इन दो भावोंसे संयुक्त [प्रादुर्भाव ] उत्पादको [सदा ] हमेशा [ लभते ] प्राप्त होता है। भावार्थ-अनादि अनंत द्रव्य अपने परिणाम स्वभावमें निरंतर उत्पन्न होता है, इसको 'उत्पाद' कहते हैं। इसे जब द्रव्यार्थिकनयकी विवक्षासे कहते हैं, तब यों कहते हैं, कि द्रव्य जो जो पर्याय धारण करता है, उन उन पर्यायोंमें वही द्रव्य उत्पन्न होता है, जो पूर्वमें था, इसका नाम 'सद्भावउत्पाद' है। और जब पर्यायकी अपेक्षासे कहते हैं, तब यों कहते हैं, कि द्रव्य जो जो पर्याय धारण करता है, उन उन पर्यायोंमें वही द्रव्य अवस्थाके पलटनेसे अन्य कहा जाता है, इसका नाम 'असद्धावउत्पाद है। इन दोनों प्रकारके उत्पादको नीचे लिखे दृष्टान्तसे समझना चाहिये । जैसे-सोना अपने अविनाशी पीत स्निग्ध (चिकने.) गुरुत्वादि गुणोंसे नाना कंकण कुंडलादि पर्यायोंको प्राप्त होता है । जो यहाँपर द्रव्यार्थिकनयसे विचार करें, तो कंकण कुंडलादि जितने पर्याय हैं, उन सबमें वही सोना उत्पन्न होता है, जो कि पहले था, न कि दूसरा । यह. सोनेका सद्भावउत्पाद है। और जो उन्हीं कंकण कुंडलादि पर्यायोंमें सोनेको . पर्यायार्थिकनयकी अपेक्षासे कहें, तो जितने कंकण कुंडलादि- पर्याय है, सबके सब क्रम लिये हुए हैं। इस कारण ऐसा कहा जावेगा, कि कंकण उत्पन्न हुआ, कुंडल उत्पन्न हुआ, मुद्रिका (अँगूठी ) उत्पन्न हुई। ऐसा दूसरा दूसरा उत्पाद होता है, अर्थात् जो पूर्वमें नहीं था, वह उत्पन्न होता है, यह असद्भावउत्पाद