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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः
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इहां प्रथम॥आ॥बप्पन लरव्युं ते खोटु पण बप्प नहि लखवू जोशए तथा एस्तुतियोंपण आचार्योए त्रणने कांणेत्रण अने च्यारने वेंकाणे च्यार कहेवा सारु एक बेत्रण श्लोकनी थुइ“अनपरं थयं" इत्यादिक व्यवहार नाष्यादिकना वचनथी स्तुति स्तोत्ररूपे करी संनवे ने एटले जिनपूजादिक विशि टकारण विना त्रण थुएं अन्यथा च्यारथुइए देववंदन अर्थे ए स्तुति स्तोत्र रूपे जोमलां बनाव्यां ते जिनगृहमां कहेवां संनवे पण सामायिकादिकमां कहेवां संजवतां नथी केमके सर्व जैनसिहांतोमां तथा प्राचीन अर्वाचीन आचार्योंना ग्रंथोमा अधस्तन गुणस्थानक वर्ति अविरति देवतानने “वंदणवत्तियाए" एपाउना निवर्त्तन करवाथी वंदन नमस्कार कर निषेध्युंडे ने ए पूर्वोक्त स्तोत्र नाम नी चोथी केटलीक थुश्योमां तो पोतार्नु परशरीरनुं रक्षण तथा सुख वली शत्रुना समुदायनो नाश करवो इत्यादिक याचना अने नमस्कार तथा तेदेवनो जय बोलवो ने पोतानुं ऐश्वर्यादिक वधारवा प्रमुख याचना करी तेसामायिकादिकमां एहवी याचना करतां व्यवहारे सावद्य लागे तेथी आचार्योए सर्वग्रंथोमां आचरणाए चोथी थु
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