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प्रस्तुत प्रश्न
उसका भार स्टेटको लेना चाहिए । आशय यह कि उसके सामाजिक संपर्कके बारमें उसपर प्रतिबंध आवश्यक हो सकते हैं। आप देखेंगे कि प्रतिभाशाली लोग स्त्री-प्रेमके विषयमें कुछ दुर्भागी होते हैं । जो नारी उन्हें प्रेम करे, वह पहलेसे अपनेको अभागिनी मान ले । इस लिहाज़से मुझे मालूम होता है कि यदि प्रतिभाशाली पुरुषोंके सामाजिक संसर्गपर स्टेट प्रतिबंध न भी लगाये, तो भी वे स्वयं अपने अन्दरसे ही एसी अड़चनें खड़ी कर लेते हैं कि उनके संसर्गसे समाज काफी हद तक बचा रहता है । वे बेचारे निसर्गसे कुछ एकात सेवी-से होते हैं। उनका संपर्क मुश्किलसे झला जाता है । वे या तो अहंकारी या अतिशय लजाशील होते हैं या - खैर, यह विषय कि समाज किसके मामलेमें कहाँतक हस्तक्षेप कर सकता है और कहाँ नहीं कर सकता, इतना व्यावहारिक है कि ऐन मोकेसे पहले इस विषयमें कोई फैसला करना ठीक न होगा। ___ कोई वजह नहीं है कि क्रान्तिकारीको एक स्टेट क्यों न जेलमें बंद कर दे, चाहे भवितव्य यही हो कि वह अपराधी बनकर जेल पानेवाला व्यक्ति ही थोड़े दिनों बाद शासनाधिकारी बने । __ ऐसे उदाहरण इतिहासमें बिरले नहीं हैं । आजका राजा कल फाँसी पा गया है, उसी तरह कलका कैदी आँखों आगे प्रेसिडेण्ट बन गया है । किन्तु उसके प्रेसिडेण्ट बनने का समय आनेसे पहले कोई समाज सरकार उसे क्यों जेलमें बन्द करनेका अधिकार नहीं रखती, यह मेरी समझमें नहीं आता । इसी तरह मैं यह मानता हूँ कि राजा जबतक राजा है तबतक समाजके लिए मान्य है, चाहे अगले क्षण वह अपराधी ठहराया जाकर सूली ही चढ़नेवाला हो । व्यक्ति और समुदायके धर्ममें निरन्तर संघर्ष चलता है और उसीका फल प्रगति है । ईसाके मनमें समुदायकी भलाई ही थी, लेकिन तात्कालिक समाजने उसे सूली दे दी । सूली देनेके बाद उस समाजको चेत हुआ और ईसा एक महान् धर्मका प्रवर्तक हुआ। भविष्यमें चूँकि ईसा एक धर्म-प्रवर्तक होनेवाला था, इस हेतुसे ईसाकी समसामायिक समाजका उसे सूली देनेका अधिकार मेरी दृष्टिमें तनिक भी कम नहीं होता। किन्तु, उसके साथ मेरा कहना इतना ही है, कि, समाजके हाथों सूली पाते हुए भी, उसी समाजकी भलाई चाहनेका और उस भलाईको अपने तरीकेसे करते जानेका ईसाका अधिकार भी उसी भाँति अक्षुण्ण मानना होगा । व्यक्ति और समुदायके धर्मोमें संघर्ष होकर भी उनमेंसे कोई स्वधर्म नहीं छोड़ सकता ।