SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 60
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ व्यक्ति और समाज ऊपरके उदाहरणसे प्रकट है कि कर्त्तव्यकी निष्ठा अपरिचित गृह प्रवेशके बारेमें मेरे अधिकारकी मर्यादाको बढ़ा देती है। वह निष्ठा जितनी हो, अधिकार भी उतना ही हो जायगा । - इसके बाद, यह प्रश्न कि कर्त्तव्य किस भाँति अमर्यादित है, उलझन नहीं उपस्थित कर सकता । मैं जब तक समस्तसे ऐक्य न पाळू, तब तक चैन भी कहाँ पा सकता हूँ ? जिसने वैसा ऐक्य पाया, उसमें कौन अधिकार समानेसे बच गया । प्रेमका अधिकार मर्यादित नहीं किया जा सकता, प्रेम कर्त्तव्य है । जहाँ फलकी चाहना है, उस प्रेममें अप्रेम भी है। इसलिए मर्यादा है भी, तो उसी प्रकारके वासना-मय प्रेमके लिए वह है। जो प्रेमकी पीड़ामेसे निकलता है वह कर्म अनधिकृत कभी नहीं हो सकता। प्रश्न--अधिकार-भावना क्या स्वाभाविक है? उत्तर--हाँ, स्वाभाविक मान लेनी होगी। लेकिन, हितकर वहीं तक है जहाँ तक कर्त्तव्य पूर्तिमें वह काम आती है। वैसे आधिकार अपने आपमें तो कोई वस्तु ही नहीं। प्रश्न--कर्तव्य-पूर्ति अधिकार-भावना क्यों कर काम आती है ? उत्तर-मैं अपने पुत्रका पिता हूँ। उसकी देख-भालका, पालन-पोषणका, शिक्षा-दीक्षाका पहला कर्तव्य मुझपर आता है। इससे यह मेरे अधिकारके अन्तर्गत है कि मैं इस बारेमें निर्णय करूँ। जब तक पुत्र स्वयं निर्णय करने योग्य हो, तब तक उसके लिए निर्णय करके देने का अधिकार मेरा हो जाता है कि नहीं ? मैं उसे कई बातोंका वजन कर सकता हूँ, किन्हीं और बातोंका आदेश दे सकता हूँ। यह मेरे कर्त्तव्य-गत अधिकारका एक उदाहरण हुआ। ऐसे ही अन्य समझे जा सकते हैं । प्रश्न-कर्तव्यको छोड़कर, संसारकी संपत्ति जैसी वस्तुओंके प्रति जो अधिकार-भावना है, क्या वह भी किसी हद तक वांछनीय है ? उत्तर-कर्त्तव्य-भावनासे अलग होकर कोई अधिकारका मद वाछनीय नहीं है । लेकिन, कर्त्तव्यपूर्वक हम धन-संपत्ति भी क्यों अपने पास नहीं रहने दे सकते ? मुझे कोई सभा खज़ानची चुने और अपना कोष मुझे सौंप दे, तो क्या
SR No.010836
Book TitlePrastut Prashna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1939
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy