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६-व्यक्ति और समाज प्रश्न--समाजकी मर्यादाओंसे आप क्या समझते हैं ?
उत्तर--समाजको यहाँ हम किसी सूक्ष्म भावमें न लें । वैसे समाज उस जनसमूहको कह सकते हैं जिसमें कोई संस्कृतिकी अथवा किसी और प्रकारकी एकता व्याप्त है । इस तरह मानवतामें कई समाज है । एक व्यक्तिकी स्वतंत्रताकी मर्यादा क्या है ? --- स्पष्टतः वह मर्यादा दूसरा व्याक्ति है। इसी तरह, एक समाजके
अधिकारोंको मर्यादा वहीं आ जाती है जहाँसे दूसरे पड़ोसी समाजके अधिकारोंपर दबाव पड़ना आरम्भ होता है ।
इस परिभाषामें देखे तो एककी स्वतंत्रता सदा दूसरेकी सत्तासे मर्यादित है। उस अर्थमें स्वतंत्रता कोई चीज ही नहीं रहती । पूर्ण स्वतंत्रता केवल उदंडता है।
इसका आशय यह कि अधिकार जहाँ तक कर्त्तव्यके साथ चले, वहीं तक जायज़ है। नहीं तो अधिकार अपने आपमें कोई भी चीज़ नहीं है, वह कोरा अहंकार है। __ मैं अपने घरमें स्वतंत्र हूँ, इसका यही मतलब है कि दूसरे घरवाला मुझे टोक नहीं सकेगा । लोकन, अपने घरमें स्वतंत्र हानेका मतलब यह कभी नहीं है कि मैं अपने घरको गलीज़ रख सकता हूँ । एक हदसे ज्यादह मेरे घरकी गलाजत बढ़ी कि पड़ोसके घरवालेका मेरे प्रति अधिकार बढ़ जायगा और जरूर वह उस बारेमें मुझे टोक सकेगा। क्यों कि, रहने के लिए हमारे घर दो है, पर साँस लेनेके लिए वायु तो एक है । जितना मैं कर्त्तव्य-पालन करता हूँ, उतना ही मेरा अधिकार बढ़ता जाता है । मेरी मर्यादाएँ उतनी ही क्षीण होकर व्यापक होती जाती हैं। ___अन्त मर्यादाओंकी निश्चितिके बारेमें यही तत्त्व निणायक हो सकता है। एक व्यक्तिकी सीमा दूसरा व्याक्त है और एक समाजकी .सीमा दूसरा समाज है । ये सीमा अधिकारोंकी हैं, प्रेम-व्यवहारकी वे सीमाएँ नहीं हैं। .
आज भी हमारी दुनियाके राजनीतिक नकशे में यद्यपि देश और विदेशमें