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लेकिन अहिंसा?
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जगह जगह उसका हम झंडा गाड़ते फिरें, वह तो मनमें बैठानेकी चीज़ है । जो अहिंसाकी ध्वजा उद्घोषके साथ फहराता है वह अहिंसाकी दूकान चलाता है । वह अहिंसक नहीं है। ___ अन्य ‘वादों में 'वाद' बनने की सम्भावना इस प्रकार न्यूनतम नहीं बना दी गई है । आरम्भसे ही उन्हें 'वाद' के तौरपर परिभाषाबद्ध बनाकर प्रतिपादित किया गया है। इसीलिए उन वादोंका मुँहसे उच्चार करते हुए विषयाचरणी होना उतना दुर्लभ नहीं है । फिर वेवाद होते भी प्रोग्राम-रूप और अनुशासनबद्ध हैं । __उनमें आत्म निषेध और आत्म-वंचनाकी अधिक गुंजाइश रहती है । अहिंसा क्योंकि प्रोग्राम-रूप न होकर धर्मरूप है इसलिए, तथा उसमें स्वेच्छापूर्वक विसर्जनकी शर्त होनेके कारण और बाहरी अनुशासनका बंधन न होनेके कारण, वैसी. आत्म-वंचनाकी कम गुंजाइश रहती है।
फिर भी वह संकट तो सदा ही बना है और तत्संबंधी सावधानता बेहद जरूरी है। धर्मके नामपर क्या जड़ता फैलती नहीं देखी जाती ? पर वह तभी होता है जब धर्मको 'वाद' अथवा मत-पंथ बना लिया जाता है । अतः अहिंसामें विश्वास रखनेवालेको यह और भी ध्यान रखना चाहिए कि उसका कोई 'वाद' न बन जाय । 'वाद' बनकर वह अहिंसाका निषेध तक हो जा सकता है।
प्रश्न-लेकिन आज तो आहिंसक पुरुषोंके बजाय अहिंसावादियोंकी ही वृद्धि हो रही है, यह मानना पड़ता है। क्या यह सच नहीं है कि इस अहिंसाचादके रूपमें दंभ, असत्य और हिंसा बद रही है?
उत्तर-यह कहना अतिरंजित होगा । अहिंसाके विषयमें दिलचस्पी होगी तो वह पहले तो बौद्धिक रूपमें ही आरंभ होगी । हाँ, अगर वह शनैः शनैः आचरणमें न उतरे और अहिंसासंबंधी दार्शनिक और तात्त्विक चर्चा एक विलासका (=Indulgenceका) रूप ले ले, तो अवश्य खतरा है । लेकिन यह कहनेवाला मैं कौन बनूँ कि आज अहिंसामें जो दिलचस्पी बढ़ती दीखती है वह सच्ची है ही नहीं, बिलकुल झूठी है ? हाँ, उस विषयमें सचेत रहना हर घड़ी जरूरी है, यह बात ठीक है।