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समाजके' वाद
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हृदयके वशमें नहीं रहती ? इसलिए हृदय-शुद्धि और हृदय-परिवर्तन गौण बातें नहीं हैं।
सामाजिक रोगके निदान पानेकी समाजवादीकी चेष्टामें यत्नकी कमी नहीं है। तल्लीनताकी भी कमी नहीं होगी। किंतु हृदयको बाद देकर ऐसी चेष्टा क्या समीचीन समाधान तक पहुंच सकेगी ? हृदयसे उच्छिन्न होकर बुद्धि क्या भ्रांत न हो रहेगी? ___ यह ठीक है कि मनुष्य कोरा और निरा हृदय भी नहीं है । बुद्धि अतीव उपयोगी है । इसलिए यह नहीं कि समाजकी ओर विमुख होकर हृदय-शुद्धिके लिए एकान्त जंगलमें चले जानेसे काम हो जायगा । लेकिन इसमें तो सन्देह ही नहीं कि जंगलमेंके संस्पर्शसे हो, अथवा कि किसी साधनासे हो, हृदयको द्वेष-हीन तो बनाना ही होगा। अन्यथा तीक्ष्णसे तीक्ष्ण बुद्धि-प्रयोगद्वारा भी हमारा अथवा समाजका विशेष उपकार हा सकेगा, इसमें भारी सन्देह है।
प्रश्न-इसका मतलब तो यह होता है कि आप समाजवाद और समाजवादियोंको निरे बुद्धिवादी या बुद्धिके आश्रित मानते हैं । इसमें सन्देह नहीं कि वे स्वयं भी ऐसा ही कहते हैं । परन्तु क्या हम यह नहीं देखते कि उनके सब कार्योंके मूलमें भी महती श्रद्धा है? क्या विना इस श्रद्धाके वे जो कुछ कर चुके हैं और कर रहे हैं, वह संभव होता?
उत्तर- श्रद्धा तो है । श्रद्धा बिना तर्क अपना मुँह तक नहीं खोल सकता। और समाजवादके निमित्त तो अनेकोंने उज्ज्वल कर्मण्यताके प्रमाण दिये हैं । वह श्रद्धाके ही नहीं, तो किसके प्रमाण हैं ? जहाँ शक्ति है वहाँ श्रद्धा तो है ही।
फिर भी वे अपनेको बुद्धिवादी कहते हैं, यह बात निरर्थक नहीं है । वह अर्थ रखती है। और उसी अर्थसे मैं सहमत नहीं हो सकता । __ ऊपर जो कहा गया उसका आशय यह नहीं था कि उनमें श्रद्धा-हीनता थी। आशय इतना ही था कि उन्होंने भौतिक परिस्थितिको इतनी प्रधानता दी कि व्यक्तिकी भावनाको ओझल ही कर दिया। मेरी दृष्टिमें भावना उतनी अप्रधान वस्तु नहीं है। __ यह भी कह सकते हैं कि उन्होंने श्रद्धा अपने ऊपर रक्खी । अपने ऊपर, यानी बुद्धिके नीचे । श्रद्धा अपनेसे किसी महत्तत्त्वके प्रति नहीं रक्खी। वैसी श्रद्धा