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औद्योगिक विकास : शासन यंत्र
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समाजके भूत, वर्तमान और भविष्यकी ओर देखनेके दृष्टिकोण विरोधी हैं।
उत्तर-तो इसके लिए मैं क्या कहूँ ?
प्रश्न-यही कि मतभेद होते हुए दोनोंके सहयोगसे कार्य करनेका कोई तरीका खोजें । क्या ऐसी भी कोई बातें हैं जिनसे यह भी असंभव हो?
उत्तर-मेरे ख़यालमें दो सच्चे आदमियोंमें मत-भेद कितने ही हों, फिर भी मेल और सहयोग संभव है। यदि वह मेल संभव नहीं है तो उनकी सचाईमें विकार है।
विचार-भेद तो अलग अलग बुद्धि रखने के कारण थोड़ा-बहुत अनिवार्य ही है। पर दो व्यक्ति सच्चे हैं, इसका मतलब ही यह है कि सचाईकी आवश्यकताके विषयमें वे दोनों एकमत हैं, व्यावहारिक सचाई एक है। वह अटूट है, निरपवाद है। वही अहिंसा है।
साम्यवाद, और भी ठीक कहें तो समाजवाद, श्रेणी-विग्रहको बढ़ाना चाहता है । उसीमें वह दलित और शोषितका त्राण देखता है।
लेकिन श्रेणी-विग्रहको बढ़ाना अहिंसाके व्रतको कबूल नहीं हो सकता । शोषित वर्ग इससे जाहिरा प्रबल और मुक्त होता भी दीखे, लेकिन उस पद्धतिसे शोषण बंद नहीं होगा । श्रेणी और श्रेणीके बीच शोषणकी संभावना रहे ही चली जायगी।
मूल भेद यही मालूम होता है।
प्रश्न-श्रेणी-विग्रहको बढ़ानेकी बात यदि फिलहाल छोड़ दी जाय तो क्या आप यह मानते हैं कि वर्तमान आद्योगिक पद्धतिमें ऐसी श्रेणियाँ बन गई हैं जिनके हित परस्पर विरोधी हैं ?
उत्तर-मैं उनको श्रेणियाँ नहीं कहना चाहूँगा। स्वार्थों में संघर्ष और विरोध है ही । कारण स्पष्ट यह कि वे 'स्वार्थ' हैं । लेकिन धनिककी श्रेणी कोई एक है
और निर्धनकी श्रेणी कोई दूसरी है, जिनकी कि प्रकृतियाँ ही दो और भिन्न होती हैं, ऐसा मुझे नहीं मालूम होता है। आदमी आदमी ही है । निर्धन धनी होता है, धनी निर्धन हो जाता है; और दोनों स्थितियोंमें उसके भीतरी व्यक्तित्वका अदाज़ ( =Contents ) वही रहता है। पैसेका माप पूरे आदमीको नहीं माप सकता।
प्रश्न-अगर ऐसा है तो धनिक लोग निर्धनोंसे प्रेमका व्यवहार