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________________ १८६ प्रस्तुत प्रश्न धारणा अहिंसा नहीं निर्जीवता पैदा करती है। जैसे अपनेको मार लेना मुक्त हो जाना नहीं है, वैसे ही कर्मसे बचना हिंसासे बचना नहीं है। अहिंसा तो बाहरी रूप है, भीतर तो उसके प्रेमकी आग जलती रहनी चाहिए। उस आगके तेजसे ही कर्मका बंधन क्षार होता है। और वैसा अहिंसक कर्म अकर्म कहाता है। प्रश्न-आजकी स्थितिको देखते हुए क्या आपको यह आशा करनेके लिए गुंजाइश दिखाई देती है कि यह अहिंसक वृत्ति मानवजातिके जीवनमें इतनी काफी बढ़ जायगी कि उससे हमारी समस्याएं सुलझ सकें ? उत्तर-आशा न करने का हक ही मैं अपना नहीं मानता । निराशा मुझे नही । लेकिन आशा-निराशाका प्रश्न ही कहाँ उठता है जब कि मेरा विश्वास है कि अहिंसक वृत्तिसे ही मानवताका काम चलेगा ? क्या मैं यह मान लूँ कि मानवजाति एक रोज मर-मिट कर समाप्त होगी और पशुता ही खुल खेलनेको रह जायगी ? ऐसा मैं कभी, कभी, कभी नहीं मान सकता। लेकिन अतिशय आशाकी अधीरता ही क्यों ? मैं तो मानता हूँ कि व्यक्तिगत हिंसा अब बहत ही कम हो गई है, यानी वह लोगोंकी तबीयतसे अधिकाधिक हटती जाती है। हा, सरकारी हिंसाका अभी भी फैशन है। राष्ट्र लड़ते हुए शरमाते नहीं बल्कि गर्व मानते हैं। लेकिन यह भी क्या अपने आपमें उन्नति नहीं है कि व्यक्तिगत मामलोंमें हिंसा एकदम निकृष्ट समझी जाती है ? कुछ ही पहले इज्जतके नामपर विलायतोंमें डयूएल लड़नेका भद्रजनोचित रिवाज था। भारतमें भी आपसी घरेलू मामलों में इजतके नामपर भयंकर तनाजे छिड़ जाया करते थे। ऐसी बातें अब पुरानी लगती हैं। क्यों न आशा की जाय कि एक दिन सरकारी हिंसा भी अन-फैशनेबिल हो जायगी ? आज तो बेशक वैसा नहीं दीखता । पर एक प्रचंड महायुद्ध क्या दुनियाकी आँखोंको इम सचाईकी तरफ खोल देनेके लिए काफी नहीं होगा ? मैं तो मानता हूँ कि अगामी महायुद्धका यही काम होगा। प्रश्न-इस उत्तरमें आपने अहिंसाके केवल एक पहलू तक, यानी शारीरिक हिंसातक, ही अपना उत्तर सीमित रखा है। मेरे प्रश्नका तात्पर्य कुछ और भी है। मैं अहिंसाके उन सब पहलुओंके विषयमें उत्तर चाहता हूँ जिनका आप अहिंसाकी व्याख्यामें समावेश करते हैं।
SR No.010836
Book TitlePrastut Prashna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1939
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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