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हमारी समस्याएँ और धर्म
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जंगलको समझ सकता है ? बूँद के लिए समुद्र और वृक्षके लिए वन क्या अनन्त काल तक अज्ञेय नहीं बने रहेंगे ?
यानी बौद्धिक ज्ञान (=Rational Knowledge) दो प्रथक् अस्तित्वों के बीच में ही संभव है । ज्ञाता और ज्ञेयके बीच के संबंधका नाम यदि ज्ञान है, तो वही इन दोनों के बीच के अन्तरका नाम भी है । वृक्षके लिए वन इसीलिए अज्ञेय है कि वे भिन्न सत्ताएँ ही नहीं हैं । इसलिए जहाँ तक जाननेका संबंध है, वहाँ तक वृक्ष लाचार है कि जंगलको न जाने । क्यों कि असल बात तो यह है कि जिस समय वह अपनेको वृक्ष जान रहा है ठीक उसी वक्त वह अपने आपमें जंगल भी तो है, क्योंकि जंगलका भाग है ।
इसलिए 'अज्ञेय' शब्दको विज्ञानका तनिक भी बाधक नहीं समझना चाहिए । अज्ञेयको स्वीकार करके विज्ञानकी ही अपनी सार्थकता बढ़ जाती है ।
प्रश्न – 'अज्ञेय' का अर्थ बतलाते हुए ऊपर वृक्ष और बूँदकी उपमा दी गई है परन्तु इन चीज़ोंमें और मनुष्यमें यह अंतर है कि मनुष्य में विचार-शक्ति है । फिर यह उपमाएँ उसे क्यों कर लागू हो सकती हैं ?
उत्तर -- लागू न हों और न होनी चाहिए, इसीलिए ये उपमायें दी गई हैं । मतलब है कि अगर व्यक्ति भी अपनेको महासत्ताका अंश न मान सके तो पानीकी बूँद और जंगलमें खड़े जड़ वृक्षकी भाँति ही वह हुआ न ? मनुष्य कल्पनाशील प्राणी है, तो इसलिए नहीं कि वह अपनेसे ऊँचा न उठ सके, यानी अपने को इतना माने कि बड़ी सत्ताको भूल जाय । हमारी बुद्धि हमारा अहंकार है, लेकिन वही बुद्धि यह भी बतलाये बिना नहीं रहती कि अहंकार व्यर्थता है और क्षुद्रता है । उस बुद्धिकी बात नहीं सुनें तो उपमा तो उपमा, हम सचमुच में जड़ वृक्षकी भाँति समझे जा सकते हैं
प्रश्न - तो फिर मानव-जातिकी विषमताको दूर करनेके लिए क्या प्रयत्न किये जा सकते हैं और कैसे ?
उत्तर – यहाँ ' विषमता' का मतलब विविधता तो नहीं है न ? अर्थात् जो वैचित्र्य है, भिन्नता है, अनेकता है, वह अपने आपमें समस्या नहीं है । क्योंकि वह कोई बुरी चीज़ नहीं है । दो न हों, तो 'ऐक्य' का अर्थ क्या रह जाय ? विना