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२२-प्रतिभा प्रश्न-मनुष्यकी प्रतिभा बहुमुखी होते हुए भी किसी एक. दिशामें विशेषतः प्रवृत्त होती है। क्या उसी एक दिशामें अधिकाधिक विशेषता प्राप्त करनेको विकासका वैज्ञानिक ढंग कहने में आपको कोई आपत्ति है ?
उत्तर-विकास वैज्ञानिक होनेके लिए एकांगी होना चाहिए, ऐसा मुझे नहीं मालूम होता । इष्ट संपूर्णता है । एक दिशाकी विशेषज्ञता कभी, बल्कि अक्सर, सम्पूर्णता-लाभमें बाधा हो जाती है । बड़ा दार्शनिक कच्चा व्यवहारज्ञ होता है । चतुर दुनियादार तनिक अकेलेपनसे घबरा जाता है । इस भाँति एकदेशीय दक्षता व्यक्तिपर बंधन-स्वरूप होती देखी जाती है। प्रतिभा अधिकांश एकांगी होती है। मैं प्रतिभाका कायल नहीं हूँ। प्रतिभा द्वन्द्वज है । प्रतिभा नहीं, मुझे साधना चाहिए । 'प्रतिभा' शब्दमें यह गर्भित है कि कोई व्यक्ति जन्मसे प्रतिभा-हीन भी हो सकता है। मैं यह नहीं मानना चाहता । यह तो ईश्वरके प्रति पक्षपातका अभियोग लगाना ही हुआ कि हम माने कि अमुकको तो प्रतिभावान् पैदा किया गया है और हमें प्रतिभाहीन ही रक्खा गया है। मैं भरोसा साधनामें रखता हूँ। किसीको यह समझनेका मौका नहीं है कि उसका उद्धार असंभव है। 'प्रतिभा' शब्द ऐसी हीन-बुद्धि (Sense of Inferiority) पैदा करनेमें मदद देता है । अभ्यास और साधना दूसरी ओर सबके लिए मानो आशाका द्वार खोलते हैं । साधना सर्वांगीण विकासमें सहायक होती है। मेरे खयालमें विकास उसीको कहना चाहिए जो सर्वांगीण है। देहपर पढे खूब उभर आय और मन-बुद्धि निस्तेज रह जायँ, अथवा कि नैय्यायिक बुद्धि प्रखर ही रहे और शरीर सदा रोगी बना रहे, तो इन अवस्थाओंको उन्नत अवस्था मुझसे न कहा जायगा । मै पहलवानको समझदार और पंडितको स्वस्थ देखना चाहता हूँ। निर्बुद्धि पहलवान और रुग्ण-काय विद्वान् विकास-प्राप्त मानवताका सूचक नहीं हैं । पुरुष स्वस्थ और सक्षम और साधारण होना चाहिए । साधारण होकर भी असाधारण । जन्मजात विलक्षण मानव (=Prodigies ) विकृतिके लक्षण हैं, संस्कृतिके नहीं । वे प्रकृतिके खिलवाड़ ( =Freaks of Nature) हैं,