________________
जीवन-युद्ध और विकासवाद
१६५
मछली आज बीसवीं सदी में भी है । वह इस सारे बीचके कालको Survive करती आ रही है कि नहीं ?
इस पृथिवीके आदिम युग में कहा जाता है कि बहुत बड़े बड़े जन्तु थे। इतने बड़े कि उनके सामने आजका हाथी तो कोई चीज़ नहीं । वे दुर्दान्त जन्तु बेहद डील-डौलके थे और बहुत शक्ति रखते थे । पर वे आज नहीं हैं । वे इस बीचके कालको survive नहीं कर पाये । अब पानीकी छोटी-सी मछली और उन भीमकाय प्राणियोंमें योग्यता के बलके ( =fitness के ) लिहाज़ से क्या तुलना की जायगी ?
और मनुष्यकी कहानी लीजिए । वह, जैसा कि प्रकृति-विज्ञान बतलाता है, हर लिहाज़ से हीन प्राणी था । डरके मारे खोह में छिपकर रहता था । बाहर रहता था, तो भयभीत रहता था । देहकी शक्ति उसमें कम थी । भागदौड़में वह अन्य बनचरोंकी तुलना में कहींका न ठहर सकता था । उसकी देह वार सह सकने योग्य सख्त न थी, न दाँत वैसे पैने थे । क्या यह कहना गलत होगा कि इस हीनताके उत्तर में ही उसमें बुद्धि फलीभूत हुई ? आज वही आदमी बड़ी आसानीसे अपनेको सबसे बड़ा मान सकता है । अपनेसे कई गुने बड़े और ज़बर्दस्त जानवरों को उसने वश में कर लिया है। मशीनें ऐसी बना ली हैं कि उनकी वजहसे आदमीकी ताकतका पूछना ही क्या है !
अतः यह बात विचारणीय हो आती है कि survive करने योग्य योग्यताका ( fitnessका ) क्या मतलब है ? साधारणतया उसका मतलब दीखनेवाली ताक़त लिया जाता है । लेकिन क्या उसका यह मतलब हो सकता है ? मुझे प्रतीत होता है कि वह मतलब तो एकदम नहीं हो सकता ।
तब आपका प्रश्न क्या रह जाता है ?
प्रश्न - जहाँ हम देखते हैं कि भीमकाय प्राणी लुप्त हो गये और छोटे छोटे जीव कायम हैं, वहाँ भी दर असल कोई एक ताकत ही विजयी हुई है । वह जिस्मानी ताकत नहीं वरन् बुद्धि और युक्तिकी ताकत थी । इसलिए बल ही survive करता है, यह सिद्धान्त क्या बदस्तूर वहाँ लागू नहीं होता ?
उत्तर - तो यों कहिए कि बल सत्य नहीं है, बल्कि सत्य बल है । इस तरहसे हम कह सकते हैं कि जो सचाई के अनुकूल नहीं है, वह अबल ही है ।