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प्रस्तुत प्रश्न
प्रश्न-समाजकी बाबत उस फोड़ेके पके होनेसे आपका क्या मतलव है ? आप उसे कब पका समझेंगे और उस समय नश्तर लगानेका आपका क्या अभिप्राय है ? और नश्तर लगानेका अधि' कारी हरेक अपनेको न समझ ले, इसके लिए आप क्या रोक रखते हैं?
उत्तर-इसके लिए निर्णायक नीति मेरे विचारमें यह होनी चाहिए कि मैं स्वयं अपने आचरणका ध्यान रक्खू । अपनेसे दूसरेका निर्णायक बननेकी जल्दी मुझे नहीं करनी चाहिए। इसी नीतिको समाज-व्यापी करनेसे यह रूप हो जायगा कि किसी बुराईको कानूनसे रोके जानेसे पहले उस सम्बन्धमें जनमतको पका लेना चाहिए । जनमत ही जनताका अस्त्र है । जनमतको अप्रबुद्ध रहने देकर किन्हीं बाहरी उपायोंसे उस जनताकी बुराइयों को निर्मूल नहीं किया जा सकता । अर्थात् , कब फोड़ा किस हालतमें है और नश्तर कौन लगाये ?-इन प्रश्नाका समाधान इसीमें है कि सबको आत्म-निणायक बननेकी स्थिति तक पहुँचाया जाय । व्यक्ति अपना, और अपने साथ उनका भी निर्णायक बन सकता है जिनका विश्वास और दायित्व उस प्राप्त हुआ है । मैं अपनको और अपनोंको दंडित कर सकता हूँ । अन्यको नहीं । मतलब कि राष्ट्रका जिनपर भरोसा है वे राष्ट्रकी नीतिका निर्णय करें। अहम्मानमें यह काम नहीं हो सकता है। ___ 'नश्तर लगाने से ठीक किसी पैनी धारवाले अस्त्रको (=कानूनको) इस्तैमाल करनेका अभिप्राय नहीं है । वह कानून, उसकी सूझ, उसकी आवश्यकता तो असलमें लोकमतमेंसे उगनी चाहिए। अपने समयसे पूर्व अच्छा विधान भी बुराईको कम न कर सकेगा । अभिप्राय यह है कि जिसके फोड़ा है, वह पहले उससे छुट्टी पानेको आतुर हो जाय, यह बहुत आवश्यक है । इसके अनंतर जो साधन उपलब्ध होंगे, उन्हें अपने ऊपर प्रयुक्त होने देनेको वह स्वयं उद्यत होगा। फिर तो अस्त्र जितना पैना हो उतना अच्छा । क्यों कि रोगी स्वेच्छास अपने ऊपर ही उसका प्रयोग करता है, इसलिए 'नश्तर' और 'पैने' आदि शब्दोंके इस्तैमालसे भी हिंसाका भय वहाँ नहीं है । क्यों कि अपनेको इस प्रकार साधते ( मारते ) रहना तो सब भलाइयोंका मार्ग है । पर ध्यान रहे, उपमाकी भाषा उपमाकी है, वह हत्याकी नहीं है ।
प्रश्र-शासन-विधान. कट-नीति और पाशविक बलके द्वारा