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मजूर और मालिक
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उत्तर - अपनी जरूरतों के लिहाज के अतिरिक्त कोई निर्णयका पैमाना उनके पास नहीं हो सकता । न होनेकी जरूरत है ।
हरेक प्राणीको जरूरी धूप और जरूरी हवा और जरूरी जमीन पानेका हक है, इसके बाद पेटभर खाना और आवश्यक आच्छादान भी उसे मिलना चाहिए । उसके आगे आत्मसंपादन और आत्मदान करने योग्य क्षमता और सुविधा उसे मिलनी चाहिए |
जीवन ज्यों ज्यों जटिल होता जाता है, वैसे ही वैसे किसी प्रकारकी दस्तकारी अथवा व्यवसाय की ( = handicraft or profession की ) शिक्षा भी निर्वाह करने और समाजोपयोगी होने के लिए जरूरी होती जाती है । वह शिक्षा भी प्रत्येकको मिलनी चाहिए ।
श्रमीके श्रमका बाजार मूल्य आज चाहे कुछ हो, लेकिन उसको ( बाजार दरको ) ऊपर बताई दिशाकी ओर ही बढ़ना चाहिए। मिसाल के तौरपर आज एक मिलका मालिक बाजारकी कठिनाइयाँ बताकर यह कहता है कि मजदूरको दिन में दो आने से ज्यादा देनेसे माल महँगा पड़ता है और बाजार में बिक नहीं सकता । तो उसका यह कहना बाजार के लिहाज से कितना ही सच हो, फिर भी, मेहनत करनेवालेकी मजूरी, जब कि जिन्दा रहने के लिए बारह आने प्रति दिन जरूरी हो, दो आने किसी हालत में नहीं की जा सकती ।
यानी, आदमीकी मौलिक आवश्यकताओंके बारे में किन्हीं आर्थिक अंकों के आधारपर विचार करना काफी नहीं है । आदमीका कर्त्तव्य है कि वह अपनी शक्तियोंका दान करनेको उद्यत रहे । इसके बाद उसका हक हो जाता है कि जिन्दगीकी जरूरियात उसकी मेहनत के एवज में उसे मिल जाएँ ।
लेकिन मेहनतकी बाजार दर नियत करने में और और बातों का भी असर पड़ता है । उसीका परिणाम है कि कभी जी तोड़ मेहनत से भर पेट खाना नहीं मिल पाता है और ठाली रहकर बिना मेहनत ढेर की ढेर कमाई की जा सकती है ।
इसलिए बाजारका मूल्य निर्धारण जिन सामाजिक एवं आर्थिक संघटनाओं पर निर्भर करता है, श्रमीके श्रमका मूल्य निश्चित करने में उनको ही अंतिम माप नहीं बनाया जा सकता, कमसे कम श्रमीको बाध्य नहीं किया जा सकता कि वह अपने श्रमदान में वही दृष्टि रक्खे |