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प्रस्तुत प्रश्न
भावनासे अलग होकर सुन्दर प्रतीत होनेवाली वस्तुमें ही हो, तो प्रश्न करनेको मुझे हो जायगा कि वह सौन्दर्य अमुक आकार-प्रकारमें है, अथवा कि किसमें है ? मेरे विचारमें देखनेवालेके मनसे अलग होकर सौन्दर्य अपने आपमें कुछ है, यह प्रतिपादित करना कठिन होगा।
प्रश्न - देखनेवाला किसी वस्तुके सौन्दर्यका निर्णायक है और इसलिए विभिन्न जनोंके साथ सौन्दर्यका विभिन्न माप-दंड हो सकता है, शायद यह आपका अभिप्राय है । किन्तु फिर भी जीवनको सत्यता भी तो कोई एक चीज़ है। इसलिए क्या उनमें कोई ऐसा एक तत्त्व ही व्याप्त ( =peltaded ) नहीं है।
उत्तर-हाँ, जरूर है । पर सत्य एक है, इसलिए उसकी अभिव्यक्ति अनेक-विधि क्यों नहीं हो सकती ? एक ईश्वर है । बाकी सब अनेक हैं । सत्य मानवी होकर अनेक है, क्योंकि मानव अनक हैं । सौन्दर्यका अस्तित्व अनुभूतिकी अपेक्षासे है। 'सौन्दर्य' शब्द ही गुणवाचक है । कहा जाता है, सौंदर्यकी पहचान के लिए 'आँखे चाहिए ।' इसका मतलब यही तो हुआ कि पहचानवाली आँखके अभावमें सौंदर्य नहीं-बराबर है । आकांक्षासे अलग करके मैं सौंदर्यका अस्तित्व नहीं मान पाता ।
प्रश्न--किन्तु फिर भी, सौन्दर्यके निरूपणमें मानव-अनुभूति क्या बिलकुल अकारण ( =rbitrary ) हो सकती है ? यदि नहीं, तो सचमुच (=objective) वह कौनसा तत्त्व है जिसके अधीन उसे रहना पड़ता है ?
उत्तर-- शायद वही आकांक्षाका प्रतिबिम्बवाला तत्त्व हो ।