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________________ ७२ ] सत्य संगीत तोड कर ऐसे सारे ढोंग, सिखाया तूने सेवाधर्म । प्रेमसे कहा-' यही है बन्धु, अहिंसा सत्यधर्मका मर्म ' ॥ रहा तू सारे झगडे छोड, रोगियोंकी सेवामे लीन 1 वेदनाओं से करके युद्ध, विश्वके लिये बना तू दीन ॥५॥ नाथा त अकी आँख, और बहिरे लोगो का कान | निहत्थे लोगो का था हाथ, पगुजनको था पाट-समान ॥ वालकों को था जननी-तुल्य, प्रेमकी मूर्ति अमित चान्सन्य । रोगियोंका था तू सद्वैद्य, दूर करदी थी सारी जन्य ॥६॥ 43/^^^^^^ दीन दुखियोंका करके ध्यान, न जाने कितना रोया रात । विताये प्रहर एक पर एक, अध्रुव मे किया प्रभात ॥ कटोरे सी जलसे परिपूर्ण, लिये अपनी आँखें सर्वत्र । दीन दुखियोंकी कुटियो बीच, सदा खोला सेवाका मंत्र ॥७॥ हृदय तय करके कठोर सही तूने दुष्टोकी मार । मानसे मिटा अभय हो वीर, कॉमका सहकर अत्याचार || आपदाओं से खेड, निकाली कभी न तूने आह । वही तो केवल इतनी बात, 'बन्धु' होते हो क्यों गुमराह' ||८|| पाकर मानवता पाठ, बनाई गुमराहोको राह | नरक जगत् न नाय, यहां भी मनमें चाह ॥ प्रेमानेनन्, हम के दिये ये प्राण | देवकर या ॥ ९ ॥ म Bea
SR No.010833
Book TitleSatya Sangit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1938
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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