________________
माता अहिंसा
[२५
[३] माता करदे जग पर छाया । निर्दयताने नग्न नाच कर अद्भुत रूप बनाया । माता ॥
इधर हमे है जगत विषम पथ ।
उधर उसे है स्वार्थ महारथ ॥ नचा नचाकर भगा भगा कर करती है आखेट । कुचली जाती पीठ और कुचला जाता है पेट ॥
रक्खा पूर्ण सभ्यता वेष ।
पर सब प्राण हुए नि शेप ।। रखकर देवीवेप राक्षसीन क्या प्रलय मचाया ॥माता ॥
[४] माता करदे जग पर छाया । वैर स्वार्थ सकुचित वासनाओंने जगत सताया ॥ माता ॥
कही सम्प्रदायो को लेकर ।
कुलकी कहीं दुहाई देकर ॥ कहीं रग पर कहीं राष्ट्र पर मरता मानव आज । वैर और मद की मारो से है चकचूर समाज ॥
सुरगति नरक बनी है हाय ।
र्याद तू किसी तरह आजायतो फिर नरक स्वर्ग बन जाये बदले सारी काया ॥ माता ॥