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उपहार
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देव, तुम्हारे विना आज सर्वस्व लुटा है मेरा । ___ वुद्धि हुई दुर्बुद्धि हृदय मे है अशान्तिका डेरा ॥ धन, तन, बल, उपभोग भोग सब शान्त नहीं करपाते ।
किन्तु बढाते हैं अशान्ति ये मनका ताप बढाते ॥ ६ ॥ ये सब प्राणवान होंगे तब जब मैं तुम को' पाऊँ ।
विगडी सभी बनेगी यदि मैं दर्शन भी पाजाऊँ ॥ सब कुछ ले लो किन्तु हृदय के ईश्वर मेरे आओ ।
अथवा बन्धन-मुक्त बनाकर अपना पथ दिखलाओ ॥ ७ ॥
उपहार
जबसे दीपक जला तभीसे होने लगा अग शृङ्गार ।
नव आगाओंमें भर करके भूलगई सारा ससार || लगी रही टकटकी द्वार पर ऑखों को न मिला अवकाश ।
प्रियतम तो तब भी न दिखाये मन ही मन होगई निराश ॥ मुरझा गये हाथ के गजरे सूख गया फूलोंका हार । __ मैने भी तब तो झुंझलाकर मिटा दिया सारा शृङ्गार ॥ बोली, व्यर्थ बनाया मैने बाहर का बनावटी वेश ।
क्या न हृदयकी सुन्दरतासे झिंगे प्यारे प्राणेश ।। जब कि यही गुनगुना रही यी तब प्रियतम आये चुपचाप ।
खडे पडे आतुर नयनों से देखा विखरा केश-कलाप ।। हुआ सम्मिल्न. हँसकर बोले-"क्ण दोगी मुझको उपहार"
ग से आँत निकल पड़े में बोली-लो मोती का हार ।।