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दुविधा का अंत . [ १०७
दुविधा का अंत पथमें कटक बिछे, पडी है गहरी खाई ।। खो बैठा सर्वस्त्र बची एक भी न पाई ।। विपदाओ की घटा उमडती ही आती है। बिजली भी यह कडक कडक मन धडकाती है || अन्धकार घनघोर है हुआ एक सा रात दिन ।
पीछे भी पथ है नहीं आगे बढना है कठिन ॥१॥ कैसे आगे बढ़ यहीं क्या पडा रहू मैं पड़ा पड़ा सड मरू कीच में गडा रहू मै ॥ हृदय हुआ है खिन्न भरी उसमें दुविधा है। चारों ओर विपत्ति नहीं कोई सुविधा है ॥ मरना है जब हर तरह क्यों न कदम आगे धरूं ।
पडा पड़ा या पिछड कर कायर बनकर क्यो मरू ।।
हरगिज़ दिलमें यह चाह नहीं मुझपर न मुसीबत आने दो । _ मैं चलूँ जहाँ पर वहीं उन्हे विनोका जाल बिछाने दो । यदि डरवाते भयभत खडे पर्वाह नहीं डरवाने दो।
पथमें यदि कटक विछे हुए पदमें गडते गडजाने दो ॥ वस, मुझे चाहिये ऐसा दिल जिसमे कायरता लेश न हो ।
समभाव धैर्य साहस के बलपर विपदासे भी क्लेश न हो । यदि ऐसा दिल मिलगया मझे तो पथकंटक पिस जायेंगे । विपदा के भयके मतोंके विनोंके दिल घबरायेंगे।