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विधवा के आंसू
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कार मुंज अभागिन पाहता, कहता कोर्ड रॉट । मान ननंद कहने लगती है, 'बन बैठी है मांड ॥
निशि दिन मुनती बोल कुबोल |
अन इन अंसुओं का क्या माल ॥ ६॥ अब न शान्टकी भी जन है आग गुडा-राज । घर घर में है चर्चा मेग गली गली आवाज ॥
बनता है निंदा का ढोल ।
अब इन अनुओं का क्या मोल ॥ ७ ॥ कान में बैठी रहनी है सब की सीग्व मग्वि । हमा टुकडा मिल जाना ज्या मिली कहीं से भीख ॥
जब सत्र करत मीज किलाल ।
अब इन असुओं का क्या मोल ॥ ८ ॥ वधक रही है भीतर भट्टी ऊपर अश्रु--प्रवाह । अरमाना का जला जलाकर बना रही हूँ 'आह'
देवा भीतर के पट खोल ।
अब इन अनुओं का क्या मोल ॥ १ ॥ मुर्दे जलकर बुल कहाते पर मैं जीवित धूल । मवके निकट मोत रहती पर मुझे गई वह भूल ||
आजा तू ही मुझ से बोल । अब इन असओं का क्या मोल ॥ १०॥