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पाठशाला का जीवन . [४५ गुरुशिष्य को पिता पुत्र बनाने का यह मतलब नहीं है कि शिष्य आचार विचार के विषय में भी गुरु का दास बन जाय । मेरे एक ब्राह्मण अध्यापक मैथुलथे । मैथुल लोग प्रायः सर्वभक्षी हुआ करते हैं । वे मांस मछली केंचुए झिंगुर आदि तक खा जाते हैं। मेरे अध्यापक शाकाहारी रहते थे क्योंकि इस तरफ ब्राह्मण लोग मांसभक्षी नहीं होते, फिर वे एक जैनशाला में रहते थे; परन्तु जब छुट्टी में अपने घर जाते थे तब खाया करते थे यह बात हम सब को मालूम थी। कभी कभी मैं मांसभक्षण को नम्र विरोध किया करता था । इसी प्रकार जैन सिद्धान्त को लेकर', विवाद सा करने लगता था। किन्तु जब वे मेरे बालोचित 'तको से ऊबकर गाली दे वैठते तब हँस देता था। .. .
यह नियम था कि गुरु अंगर क्रोध से डौटे तो चुप रहजाना, यदि हलके क्रोध या विनोदमिश्रित क्रोध का प्रदर्शन करें तो मुसकरां' जानी । इस प्रकार गुरु शिष्य का सम्बन्ध कभी नहीं बिगडू पाया। इस नीति का अच्छा ही प्रभाव पड़ा। ...
फिर भी इतना तो कहना ही पड़ेगा कि गुरु शिष्य का यह सम्बन्ध तभी. टिक सकता है जब.गुरु , योग्य हो स्नेही हो. निःपक्ष .: हो और उसमें कुछ गाम्भीर्य और कुछ विनोद हो -। खैर, सागर : पाठशाला के जीवन से इतना आवश्य हुआ कि मैं कष्टसहिष्णु सेवाभावी और विनीत हो गया।
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