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________________ उपसंहार [२८५ थोड़े बहुत अंशों में यह सीखने की कोशिश करेंगे कि मानव-जीवन में कैसी कैसी मुर्खताएँ भरी पड़ी हैं। अभी तो मैं उस मार्ग के द्वार पर खड़ा हुआ हूँ जो सन्तों ___ का मार्ग कहा जाता है उस मार्ग में चलने का बड़ा भारी काम बाकी है, पर चलने का निश्चय अवश्य है और यह भी आशा और विश्वास है कि उस मार्ग पर काफी आगे बढ़ सकूँगा । दुनिया को कुछ देने की कोशिश करने का दावा तो किया जा सकता है पर कुछ दे सकने का दावा करना मूर्खता है क्योंकि हम जो कुल देते हैं वह दुनिया लेती ही है-यह नहीं कहा जा सकता, और उसे उसकी जरूरत ही है-इस विषय में हमारी प्रामाणिकता निर्विवाद नहीं हो सकती, पर इन सब बातों के बाद भी यह तो निश्चय किया जा सकता है कि हम दे सकें या नहीं, पर पा सकते हैं । मैं जो कुछ पाना चाहता हूँ वह यह है दे मस्त फकीरी वह जिससे शाहों की भी पर्वाह न हो। में भी न किसी का शाह बनूं, मेरा भी कोई शाह न हो ॥१॥ दुनिया दौलत में मस्त रहे, मैं मस्त रहूं तुझको पाकर । निर्धनता की ज्वालाओं से तिलभर भी दिलमें दाह न हो ॥२॥ घर घर में मैं पाऊं पूजा या घर घर में अपमान मिले । दोनों में ही मुसकान रहे, मन के भी भीतर आह न हो ॥३॥ परके दुखम रोऊ जी भर पर अपना दुख न रुला पाये। परसुखको अपना सुख समझं सुखियोंसे मनमें डाह न हो ॥४॥ सब रंग रहे इस जीवन में पर मैल न मन में आ पाये । विचरे मन जीवन के बनमें पर पलभर भी गुमराह न हो ॥५||
SR No.010832
Book TitleAatmkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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