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आत्म-कथा बीस रुपये की रकमों की इतनी चिन्ता नहीं थी, पर आज मनुप्य आर्थिक मामलों में किस प्रकार पतित हो गया है और घनिष्ट लोग भी विश्वासपात्र नहीं रह गये हैं इस वातको लेकर खेद अवश्य हुआ।
पिताजी का बहुतसा सामान था, कुछ इधर उधर दे दिया, कुछ रिश्तेदारों की भेंट हुआ । इस प्रकार घर को निःशेष करके मैं पांच-सात दिन में फिर अमरोहा की तरफ लौटा। वहां प्रचार करके जून के प्रारम्भ में वर्धा आ पहुंचा।
वर्धा का मकान ढंग का नहीं था पर काफी बड़ा था और ऐसा था कि कुछ लोगों की कल्पना थी कि इसमें भूत रहते हैं । मुझे भूतों का डर नहीं था, अगर भूत होते तो मैं उन्हें चाहता, पत्नीवियोग और पितवियोग के बाद जो मैं उस रात को उस . विशाल शून्य गृह में एकाकीपन का अनुभव कर रहा था उसको
दूर करने के लिये भूतों की संगति भी बुरी न होती । पर भूतों को . क्या गरज थी कि मेरा दिल बहलाने के लिये पधारते ।
कहने के लिये तो जनसेवा के लिये जीवन दे दिया था और पत्नीवियोग व पितवियोग के होने पर भी मैं अपने कर्तव्य से पीछे नहीं लौटा था पर इतना वीतराग न बन सका था कि इस ' प्रकार के कुटुम्ब-ध्वंस की वेदना मन में भी न आती। ठीक ठीक
सहयोगी मिले नहीं थे निकट भविष्य में मिलने की आशा नहीं थी इसलिये पत्नी और पिताजी दोनों की जरूरत मालूम हो रही थी।
. पिताजी को कुछ वर्षों तक जीवित देखने की इच्छा के भीतर तो एक प्रकार का अहंकार भी था। शब्दों से नहीं किन्त ___ . जीवन के द्वारा मैं उन्हें बता देना चाहता था कि तुम्हारे रोकते