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बम्बई से विदाई
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| विचारक विद्वानों के द्वारा समाज और साहित्य आगे को बढ़ता हैं इसलिये समाज का कर्तव्य है कि वह ऐसे विद्वानों को सुविधा द उत्तेजन दे हर तरह सहायता पहुँचाये, सां यह तो रहा दूर, किन्तु मैं जो मजदूरी करके जीविका चलाता हूँ विचारकता के दंड में जब वह भी मुझसे छीनी जाती है तब मुझे आश्रर्य होता है और समाज के इस दुर्भाग्य पर खेद होता है" ।
ठीक ठीक शब्द तो याद नहीं पर भाव यही था । इसका क्या असर हुआ यह नहीं मालूम, हां जरूरी असर न होने पर भी इतना अवश्य हुआ कि फिर मुझसे जवाब-तलब नहीं किया गया कुछ महीनों के लिये क्षोभ दब गया ।
पर मेरे विरोधी प्रचारक शान्त न थे, उनकी कृपा से क्षोभ फैलता जाता था और अन्तमें ऐसा भी हुआ कि कमेटीने मुझे अलग करने का प्रस्ताव पास कर लिया पर हुआ इस तरह कि मेरे समर्थक मेम्बरों को पता न लगा । इसलिये इस अनियमित कार्य के विरोध में भी आवाज आने लगी, श्री मोहनलालजी दलीचन्दजी देशाई ने तो इतना जोर लगाया कि कमेटीको प्रस्ताव नाजायज करार देना पड़ा | इस प्रकार मेरे पास स्तीफा देने की सूचना आने के पहिले ही मझे अलग करने का प्रस्ताव रद्द हो गया ।
इसमें कोई सन्देह नहीं कि मैं अगर थोड़ा भी जोर लगाता तो महावीर विद्यालय से मेरा सम्बन्ध न टूटता । क्योंकि कुछ मेम्बर मेरे विचारों के समर्थक थे, कुछ मध्यस्थ थे, वे कहते थे कि जब काम खूब अच्छी तरह हो रहा है और शिक्षण काफी ऊँचे दर्जेपर पहुँचा दिया गया है तब ऐसे योग्य परिश्रमी और ईमानदार आदमी