SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 263
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दाम्पत्य के अनुभव [ २५१ लिये, झगड़ों को शान्त करने के लिये बहुत प्रेरित करती थी। दुसरा जो हमारा नियम था, वह यह कि कितना भी झगड़ा हो, परन्तु दोनों को अपना अपना काम करना ही होगा। और समय तो सचना पाने की आकांक्षा भी की जाती, परन्तु इन दिनों बिना किसी प्रेरणा के काम करना होता । मैं उस दिन बिना काहे. ही शाक लाता, बिना कहे ही भोजन करने बैठ जाता, वह भी अपनी गटी बजाती। अगर मुझे माल्म होता कि वह मेरे भोजन कर लेनेपर भोजन न करेगी तो मैं उसे साथ ही भोजन कराता। दोनों यथाशक्य इस बातका भी खयाल रखते कि किसी ने रोपम काम तो नहीं खाया है । इस सतर्कताका भी पछि अन्धा परिणाम होता था। वास्तव में इन दोनों नियमों का होना बहुत हितकर है। इसोशा परिणाम था कि हम दोनों का दाम्पत्य मुखमय था और धीरे धीरे ऐसे झगझे की इतिश्री कर सका था। मुझमें अगर अहं.कारकी मात्रा पार कम होती और उसमें मेरी गम्भीर भावनाओं को समझने की शक्ति होती तो प्रारम्ममा यह बखेड़ा भी न होता। इसमें अधिक भूलरीही थी। मुदो उसकी योग्यता देखकर ही आशा फरनी चाहिये थी, परल में बहुत अधिया आशा करता था। पी उसका विशाल आ मेरी रसमला; तर गंधर्ष नामदार हथे। पिछले वर्ष बीमार रही; नब हम दोनो या ना और
SR No.010832
Book TitleAatmkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy