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दाम्पत्य के अनुभव
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नया घर, स्त्रियोचित संकोच और उज्जा के मारे नहीं बोलती थी । किसी तरह लोगों ने इसका पता लगा लिया । पर मैं बेदाग निकल गया, उसे ही दबाया गया । चौथे दिन उसे ही बोलना पड़ा । और जब उसने न बोलने का कारण पूछा तो मैंने पूरी बेशर्मी और धृष्टतासे उत्तर दिया कि तुम्हारा कर्तव्य था कि तुम पहिले बोलो ! यह कैसी मृढ़ता क्रूरता और नीचता थी । इसका जब जब स्मरण आया है तब तब मैंने अपने को धिकारा है। खैर, आजका नवयुवक इतना मूर्ख नहीं होता | परन्तु एक सामान्य बात तो इससे समझ में आती है कि वृद्ध जन मूर्खतावश कैसा अनर्थ करा दिया करते हैं ! शायद उनकी यह भावना होती है कि लड़का कहीं अपने हाथ से न निकल जाय, इसलिये वे दाम्पत्य-जीवन के प्रेम में रोड़े अटकाया करते हैं और पहिले से ही इसकी भूमिका बांधने उगते हैं । परन्तु इसका परिणाम दोनों पक्षों को अहितकार होता है। विवाह होनेपर भी में पढ़ता था, इसलिये छुट्टियों में ही घर आता था | घर में गरीबी थी; इस प्रकार मेरी पत्नी को न धनका सुख था, न दाम्पत्य सुख था । घर आनेपर सब वृद्ध सी पुरुष मेरी पत्नी की शिकायतों का ढेर जमा कर दिया करते थे । उनकी इच्छा होती थी कि में पत्नी को मारूं । सौभाग्यवश मुझमें इतनी पशुता नहीं थी, इसलिये में उनकी शिकायतों को एकान्त में पानी के सामने रखता, इस प्रकार धीरे धीरे दोनों तरफ की बातों को समझने की कोशिश करता जिस बात में वृद्धों का दोष होता उसमें बिलकुल चुप होजाता । वृक्षों को उदहना देकर में उन्हें और नी शुच्ध न करता भा | जिसमें पानी का दोष होता, उस बात को