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आत्मकथा ये विचार मन में घूमने लगे पर इन को तुरंत व्यक्त न कर सका । कुछ महिनों तक ये विचार मन में ही रहे । कभी कमी कुछ विशेष विचार कर लेता अन्यथा सारी शक्ति जैनधर्म का मर्म लिखने में जाती
.. इतने में पर्युषण पर्व आया । उस वर्ष अहमदाबाद की तरह वम्बई में भी एक व्याख्यानमाला की योजना हुई । मुझे लगा कि अपने ये विचार इस व्याख्यानमाला में ही रक्खू | इसलिये मैंने व्याख्यान का विषय चुना 'धर्मों में भिन्नता'।
मेरी दृष्टि में ये विचार काफी क्रान्तिकारी थे । मुझे डर था कि इस विषय में कुछ ऐसी भल न हो जाय जिससे विचारों की हँसी उड़ाई जाने लगे। इसलिये व्याख्यान के पहिले दो बजे रात तक बैठकर मैंने वह व्याख्यान लिख डाला । साधारणतः मैं कभी लिखकर व्याख्यान नहीं देता । मेरा वह पहिला ब्याख्यान था जो मैंने लिखकर दिया था और आजतका शायद वही अंतिम है। ;
व्याख्यान में कई नई बातें थी । यद्यपि उस समय मुझे। सत्यसमाज का स्वप्न भी नहीं था पर सत्यसमाज का मूल उस
को ही कहा जा सकता है । उस व्याख्यान की काफी · तारीफ हुई बहुत से मित्रोंने उसे आशातीत मौलिक, एकदम नया कहा मुझे भी ऐसा मालूम हुआ कि मैंने जीवन का पथ पालिया है।
.. उस व्याल्यान. के बाद भी दो वर्ष और निकले । जैनधर्म का मर्म तो लिखता रहा पर सर्वधर्म समभावका चिन्तन विशेष जोर पकड़ता गया। .