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आत्मकथा
अवधि नहीं थी कि वह मांगलिक अवसर कब आयगा । पर 'जैनधर्म का मर्म' लिखना प्रारम्भ करने के बाद अकस्मात एक बार उस मांगलिक अवसर का निश्चय होगया ।
व्यावर
• स्थानकवासी जैन मुनि श्री चैतन्यजी और उनके पिता मुनि कल्याणजी (जिनने कि अब जनसेवा के डिये मुनिचेप छोड़ दिया है. ) मेरे लेखों को बहुत पसन्द करते थे, और बड़े चाव से पढ़ते थे । एक बार जब कि वे व्यावर में ठहरे हुए थे मेरे विचारों के प्रचार के लिये तथा मुझ से चर्चा करने के लिये उनने बुलाया । ब्यावर में मेरे काफी व्याख्यान हुए । मेरे स्वतन्त्र विचार भी लोगों ने बड़े शौक से सुने, इतना ही नहीं उनकी तारीफ भी की, मानपत्र दिया, इन सब बातों का मेरे दिलपर बड़ा प्रभाव पड़ा । मैं इतना समझा कि मेरे विचारोंको समाजमें जगह है । अगर इस तरह प्रचार किया जाय तो इसमें सन्देह नहीं कि इन विचारों को माननेवाला एक विशाल दल बन सकता है । उस समय मुझे मालूम नहीं था कि समाज उदारता की बातें सुनना जितना पसन्द करता है उतना पालन करना पसन्द नहीं करता |
पर यह सब मुझे नहीं मालूम था यह वहुत ही अच्छा था । क्योंकि मैंने तो अपने लिये इससे उत्साह ही पाया, और मेरा दिल आगे वढने के लिये, सर्वस्व त्यागकर अर्धसंन्यासी बनकर प्रचार करने के लिये लालायित होने लगा |
" पर आखिर था बनिये का बच्चा, जोश में आकर इकदम कूद पड़ना बनियाई नहीं है, इसलिये इकदम न कूदा । यह प्रतिज्ञा करली कि पांच वर्ष में नौकरी छोड़कर इस काम में लग जाऊंगा । :