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२२० ] . . आत्म-कथा की दो शर्ते तो पूरी तरह कर ही दी थीं, रह गई थी तीसरी शर्त । मरने की, सो सोंचता था अपनी मौत से या इन आन्दोलनों से पैदा होनेवाले विक्षोभ से मारे जाने के कारण मरना तो है ही, बस . मर जाने पर तीसरी शर्त भी पूरी होजायगी इस प्रकार पिछले हजार वर्ष में जो विकृत शास्त्र वनंगये हैं संस्कृत में जो जाली ग्रंथ रचना हुई है उसकी प्रामाणिकता की कलई खुल जायगी। शास्त्र से शास्त्र लड़ाकर युक्ति तर्क के लिये मैदान साफ कर दिया जायगा।
जैनधर्म में परीक्षकता पर इतना जोर दिया गया है कि दि. जैन समाज में शास्त्रों की ऐसी परिभाषा बन जाना आश्चर्य की बात है । यह परिभाषा यद्यपि लिखी नहीं गई पर व्यवहार में मानी अवश्य गई । इसीलिये जब धर्मरहस्यम् निकला तब बड़ी घबराहट फैली, इस अनर्थ (8) को रोकने के लिये बड़े बड़े अनुरोध पत्र
और धमकी के पत्र आने लगे । सेठ ताराचन्दजी पर जोर डाला गया कि वे इस अनर्थ को रुकवावें । पर न तो ताराचन्दजी के विचार मुझ से भिन्न रह गये थे, न मेरी प्रकृति ऐसी थी कि इस प्रकार दवाव में आकर धर्मरहस्य लिखना रोकदूं । इसलिये कई महीने तक मैं लिखता रहा और विरोधी वन्धु भी कलिकाल आदि की दुहाई देकर और धर्मनाश (8) अनिवार्य समझकर चप बैठ गये । . .. इन आन्दोलनों ने मुझे विचारक बनने, उत्तर प्रत्युत्तर करने, धमकी में, न आने आदि की बहुत बातें सिखाई, हिम्मत भी बढ़ी,' समाज का मनोवैज्ञानिक अनुभव भी हुआ, लेखनी का.. वशीकरण भी कुछ होगया ।... . . . . . ........