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आत्मकथा तो अच्छा, क्योंकि बम्बई छोड़ने के बाद समाज में कहीं काम करने लायक न रह जाऊंगा यह मैं समझता था । इस प्रकार न तो मैं अपनी रोटी का बोझ किसी पर डालना चाहता था न सामाजिक क्रान्ति का काम छोड़ने को तैयार था । यही था मेरा वह स्वार्थीपन जिसने मुझे अपनी तरफ से अधिक काम करने के लिये प्रेरित किया था । पर उस समय कोई अधिक काम था ही नहीं, इसलिये मुझे एक वर्ष तक थोड़ा काम करना पड़ा। - इतने में सौभाग्य से एक सेठजी ने विद्यालय को तीस हजार की रकम इस काम के लिये देना चाही कि विद्यालय में अगर बी. ए. तक अर्धमागधी और न्यायतीर्थ की पढाई का इन्तजाम हो तो इन विषयों का अध्ययन करनेवाले विद्यार्थियों को पांच पांच दस दस रुपया महीना स्कालर्शिप दीजाय ।
मुझ से पूछा गया । मुझे तो मनचाही मुराद मिली । मैंने तुरंत स्वीकृत दे दी कि मैं अकेला ही वी. ए. तक अर्धमागधी और प्रथमा मध्यमा और तीर्थ की कक्षाएं सम्हाल लंगा।
- मेरे विश्वास दिलाने पर विना किसी झंझट के यह योजना चालू कर दी गई । न्यायतीर्थ का कोर्स पढ़ाना तो कठिन नहीं था पर अर्धमागधी मैं स्वयं नहीं पढ़ा था । इसलिये कक्षाएँ चाल होने के पहिले गर्मी की छुट्टियोंमें एक महीने तक मैंने अर्धमागधी का व्याकरण रटा, कुछ साहित्य देखा, अगले साल पढ़ाये जानेवाला कोर्स देखा और एक प्रोफेसर की तरह सब कक्षाएँ लेने लगा। आवश्यकता होनेपर एम. ए. तक की पढ़ाई की । इस प्रकार अपनी समझ के अनुसार मैंने अपना स्थान जमा लिया । इससे मुझे अध्ययन