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________________ दमोह में आगमन [९ हुए लोगों की छाप मिटती नहीं है । वैर की छाप मिटाने को तो बद्धि कहती है, दिल कहे या न कहे, पर उपकार और सेवा की छाप मिटाने को न तो बुद्धि कइसी है न दिल | निर्मोहता के नामपर अगर कृतज्ञता भी मिट जाय तब कहना चाहिये कि जीवन मिट गया या मनुष्यत्व मिट गया फिर सन्तपन की तो बात ही दूर है। (२) दमोह में आगमन माता के देहान्त के बाद मुझे और मेरी बहिन को लेकर पिता जी दमोह आ गये । यहाँ बुआ की कृपा से हमे खाने पीने का कोई कष्ट न था इसलिये माँ को बिलकुल भूल गये । नया गांव होने से और संकोची स्वभाव होने से मैं घर के बाहर न निकलता था । बहिन के साथ घर के एक भाग में खेला करता था। बड़ा से बड़ा खेल था देवताओं की पूजा | घर के पिछवाड़े भाग में जाकर मैं मिट्टी सानता और उसकी छोटी छोटी सैकड़ों पिंडियाँ बनाता। तब हन दोनों भाई बहिन उन पिंडियों की घंटों . पूजा करते । घंटों गला फाड़ फाड़ कर चिल्लाते रहते । जो कुछ बोलते उसमें न कोई भाषा होती न कोई शब्द या अक्षर, अर्थहीन आवाजों का प्रवाह होता । जब तक मैं स्कूल नहीं गया भाई बहिन का यही खेल चलता रहा । इससे यह समझता हूं कि ___भक्ति के संस्कार शैशव अवस्था में भी काफी पड़ चुके थे। ... मुझे मिठाई खाने की बहुत आदत थी। पिताजी ने शाहपुर से ही यह आदत डलवादी थी। शाहपुर में नारायण नामका एक ,
SR No.010832
Book TitleAatmkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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