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इन्दोर में
[१५१ - इस बात के भी बहुत अनुभव हुए कि जिनकी रोटी समाजके हाथमें हैं अर्थात जो समाज के नौकर हैं उन्हें स्वतंत्र विचार करना कठिन है और समाज का रोष उन पर सव से अधिक उतरता है । एक बार मेरे एक लेख के कारण जबलपुर के लोग क्षुब्ध हो गये थे । लेख. के प्रकाशन में प्रकाशकजी ने कुछ गड़बड़ी जरूर करदी थी पर परवार-सभामें उसकी पूरी जिम्मेदारी मैंने अपने सिर पर ले ली क्योंकि लेख का लेखक मैं था और पत्रका सम्पादक भी मैं था । ५२ आश्चर्य है कि पंचों का सारा कोप प्रकाशकजी पर गिरता था क्योंकि वे सभा के वैतनिक कर्मचारी थे मैं समाज का नौकर ता था पर परवार समाजका नौकर नहीं था, इसलिये मुझसे कहते थे कि हम आप से कुछ नहीं कहना चाहते । इस से मैंने समझा कि समाज की नौकरी और सामाजिक क्रान्ति के काम एक साथ नहीं हो सकत । पीछे तो मेरे विचार इस विषय में इतने स्पष्ट हो गये कि जैसे सरकारी नौकर कौंसिलों आदि में प्रतिनिधि नहीं हो सकते न वोट दे सकते हैं उसी प्रकार जो लोग समाज की नौकरी करते हैं उन्हें प्रतिनिधि आदि न बनना चाहिये । स्वतंत्र विचार से जिन्हें रोटी, छिनने का डर है वे समाज का नेतृत्व नहीं कर सकते इसका यह मतलव नहीं कि समाज में उनका स्थान नीचा समझा जाय, सरकार के बड़े बड़े अफसर वोट नहीं दे सकते इसका यह मतलब नहीं है कि उनका स्थान नीचा है। सिर्फ यही समझा जाता है कि उनकी परिस्थिति वोट देने लायक नहीं है । जबतक समाज नौकरी के काम में स्वतन्त्र विचारों के कारण हस्तक्षेप करना बन्द न करे तब तक समाज के वैतनिक