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________________ ८ १३८ ] आत्म-कथा (१८) इन्दोर में इन्दोर के छः वर्ष मेरे विकास के दिन हैं। सिवनी में सब पुराने विचार के लोग थे पर वहीं सुधारकता का वीजारोपण हुआ। इन्दोर सुधरकता में कदाचित् सिवनी से भी पीछे था, मेरे सब सहयोगी पुराने विचारों के पंडित थे फिर भी आश्चर्य है कि. कोई अज्ञात शक्ति सिवनी में बोयेगये बीजको इन्दोर में पानी दे देकर पनपाती रही । खैर, सुधारकता के विषय में कुछ कहूं इसके पहिले इन्दोरी-जीवन की अन्य बातों की खतौनी कर लेना ठीक होगा। इन्दोर में आकर मुझे अपनी और पंडितों की स्थिति का ठीक ठीक ज्ञान हुआ । अभी तक मुझे सतयुग के वे ही स्वप्न आते थे जब वड़ा से बड़ा धनवान और चक्रवर्ती सम्राट तक विद्वान के सन्मान में खड़ा हो जाता था और उन के घर जाने में संकोच नहीं करता था और अपने घर बुलाने में सौभाग्य समझता था । पर इन्दोर में आकर मुझे मालूम हुआ कि दुनिया . ऐसी नहीं है। यहाँ रुपयों की गिड्डी की ऊँचाई से आदमी की ऊँचाई मापी जाती है। पर यह बात मेरी प्रकृति के विरुद्ध थी इसलिये सर्कस के शेर की तरह परिस्थिति देखकर तमाशा दिखाता था, अपमान भी सहता था पर यह सब उतना ही, जितने के लिये विवश होना पड़ता, अन्यथा मन तो ग़र्जता ही रहता था। पर गर्जना निष्फल थी इस लिये उसने मुझे एकान्तप्रिय बना दिया था। एकान्तप्रियता कुछ तो स्वभाव में थी कुछ परिस्थिति ने
SR No.010832
Book TitleAatmkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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