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आत्म-कथा
की गुंजायश अधिक है, समाजनीति में कम । कल आप हिंसक क्रान्तिकारी थे, जेल भी हो आये थे आज अहिंसक बन सकते हैं । जिस सरकार से लड़े थे उसी के सन्मानास्पद बन सकते हैं, अंग बन सकते हैं, पर एकबार सामाजिक क्रान्ति की, विजातीय विवाह, विधवाविवाह किया कि पुश्त दर पुश्त के लिये अलग हो गये । महाप्रलय के सिवाय लौटने का कोई मार्ग नहीं । ४- राजनीति नगद पुण्य है, एकाध वार जेल काटा कि कौंसिल, असेम्बली, डिस्ट्रिक्ट वोर्ड, म्युन्युसपलिटी आदि में सिंहासन रिजर्व होने लगते हैं या मिलते हैं, पर समाज - नीति में इतना ही लाभ है कि मरने के बाद कदाचित् तुम्हारी कब्र पर या चिता पर कुछ लोग दो आँस चढ़ावें, जिन्हें तुम देख नहीं सकते, हाँ, उनकी आशा में आज तुम जीना चाहीं तो जी सकते हो ।
इस प्रकार सामाजिक क्रान्ति का मार्ग बड़ा कठिन है । इस देश में अनेक राज्यक्रान्तियाँ हो गईं पर समाज करीव कीव ज्यों का त्यों हैं ।
ख़ैर, मुझे तो आत्मकथा कहना है । वह एक तो योंही तुच्छ और निःसार है उस में ऐसी चर्चा के पत्थर डाल देने से वह और भी अरुचि-कर हो जायगी । हां, तो बात यह कहरहा. था कि शाहपुर के वे दिन भले थे । पर जीवनभर शाहपुरवासियों
थी, कहीं न पूरी होने पर
के सादर निमन्त्रणों पर तो गुजर हो नहीं सकती कहीं नौकरी ढूँढ़ना जरूरी था । नियमानुसार छुट्टी मुझे सिवनी लौट जाना चाहिये था पर सिवनी जाने को जी नहीं, चाहरहा था । इतने में सम्मेदशिखर पर शास्त्रवाचन आदि के
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