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________________ १३२ ] . आत्म-कथा शाहपुरवालों के इस आदर और प्रेम का ही यह परिणाम. था कि छुट्टी के दिनों में मैं प्रायः शाहपुर ही रहता था । हर दिन चार छः दिन शास्त्र बाँचता था । इन प्रकार के प्रवचनों में मैं इतना तल्लीन हो जाता था कि साँप भी आजाय तो मुझे पता न लगे । एक दिन हुआ भी ऐसा ही। गर्मी के दिनों में एक दिन में मंदिर के चबूतरे पर शास्त्र वाच रहा था। लोग इतने अधिक नहीं आये थे कि उन्हें मेरे पीछे बैठना पड़ता, सामने ही १०-१५ आदमी बैठे थे । पीछे थोड़ी ही दुर पर एक खंडहरसा था, उस में से एक सांप आया और न जाने किस तरफ से मेरी गोदी में आ बैठा। थोड़ी देर बाद आदमी बहुत हो गये और मेरे चारों ताफ आदमी जम गये, इसलिये सांप को या तो निकलने में आदमियों का डर हुआ या गोदी में बैठना ही उस अच्छा लगा। सांप अंगूठे बराबर मोटा और करीब दो फुट लम्बा था । पर शास्त्र वाचने की धुन में न तो मुझे उसका आना . मालूम हुआ, न उसका वजन | ढाई तीन घण्टे शाम वांचने के . वाद जब मैं उठने लगा तब गेट पर उसका स्पर्श मालूम हुआ, देखा तो सांप ! मैं घबराया नहीं, धीरे से धोती हिलाई कि वह नीचे गिर पड़ा और खंडहर की तरफ चला गया । अच्छा हुआ कि मैं मुनिवेषी नहीं था नहीं तो इस प्रवाह के उठने में देर न लगती कि श्रीमान् धरणेंद्र जी मेरी दिव्य ध्वनि सुनने आये थे। - शाहपुर का शास्त्र-वाचन ऐसी ही तल्लीनता से होता था कि श्रोता, वक्ता सव सुधबुध भूल जाते थे । रिस्तेदारी लोप हो
SR No.010832
Book TitleAatmkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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